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चार छोटी कविताएँ- मन मृत्तिका, मन नमन, प्रेम तुम्हारा, जो
तुम आ जाते एक बार
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मन मृत्तिका
प्रेम- परतों को छू लो तुम
इन में कहीं
मेरी खुशियाँ
दब सी गई हैं
इन का भार
नैनों में उतरने लगा है
और दबती जा रही हूँ
मैं
अपनी ही मिट्टी में
कि मन मंथन की बेला में
विष ही हुई नियति
पिय- पीयूष की क्षुधा
दे रही है एक अकुलाहट
लौटा दो लौ मेरी
क्या पता
धुल जाए
वर्षों का शीत
मन नमन
मातृ-मन का कोई कोना
मुझे बसाए ज्यों सपन सलोना
प्यार भरे उर की कली
स्फुटित कल खिल आज चली
जनक-प्रेम इतना छलका
थाह न जान हृदय सका
चाह इतनी सीख यही
महको खुद महकाओ सभी
दमको खुद दमकाओ सभी
प्रेम तुम्हारा
सागर की हिलोरों सा
प्रेम तुम्हारा
छू जाए
तो भिगो देता है
तुम्हारे शुभ्र-शत-लक्ष
प्रीत-बूँदों में
और
क्षण भर में
छोड़ जाता है मुझे
शीत-सनी सी
अपनी सभी
सोन-बूँदें लेकर
जो तुम आ जाते एक बार
जो तुम आ जाते एक बार
हो जाती मैं
रजनीगंधा-रंजित
पलित-पंखुड़ियों को
पुष्प देते वार
रत्नों सा दमकता
मेरा राग
महक उठती फिर से मालती
परिमल होता साकार
जो तुम आ जाते एक बार
24 नवंबर 2007 |