अनुभूति में
सुरेश राय
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पड़ रहा है दीप मद्धिम
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पड़ रहा है दीप मद्धिम
पड़ रहा है दीप मद्धिम, कोई नूतन लौ लगा लो।
भागते सुख-दुःख पलों से, एक अपना पल चुरा लो।
शाम के पनघट खड़ा है, दिवस-श्रम से थकित सूरज
मन की सारी वासनाएँ, इस घड़ी इस घट डुबा लो।
गर ठहर जाते पल एक दो, ज़िंदगी बेसुर न बनती
रूह से फिर रूबरू हो, आँख में सपने सजा लो।
कह रहा वाइज़ सभी को, आग की बातें कभी से
वन-अनल की दाह रोके, तुम कोई दाहक जला लो।
मोड़ से भागी हुई, दिग्भ्रम पड़ी नटखट सड़क को
ठौर-ओ'-ठिकाने के लिए, घर तलक अपने बुला लो।
इस शहर में बोल धीमें, पड़ रहे हैं पक्षियों के
प्रगति के हाथों बिखरती, घर की कुछ मिट्टी बचा लो।
1 जुलाई 2007
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