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गीत ढूँढे
गीत ढूँढे उस अधर को
जो उन्हें सरगम बना दें।
जिन्दगी की बीन के निश्चेत तारों को जगाए,
ज्यों पलक मधुयामिनी में रजनी–गंधा मुस्कराए।
ज्यों समन्दर की लहर को गुदगुदाती चाँदनी है,
वह अधर–स्पर्श, मेरे प्राण यूँ ही गुदगुदाए।
चेतना के अंकुरण ये ढूँढ़ते स्नेहिल घटा वह —
प्रीत से जो पाट इनको स्नेह के शतदल बना दे,
स्नेह से जो सींच इनको
प्रीत के पाटल बना दे।
गीत ढूँढे उस अधर को
जो उन्हें सरगम बना दें।
वज्रवंशी पत्थरों में भी छिपी हैं अहिल्याएँ,
गर नजर हो राम की तो, ढूँढ़ लेती गौतमी को।
स्नेह–करुणा से भरा जब हृदय होता आदमी का,
आदमी भी ढूँढ़ लेता पत्थरों में आदमी को।
ठोकरें झेलीं बहुत हैं जिन्दगी ने राम मेरे —
चाहता पाहन परस वह,
जो उसे पारस बना दे।
गीत ढूँढे उस अधर को
जो उन्हें सरगम बना दें।
मलय–तरुवी से लिपट ज्यों पवन है होता सुवासित,
उस अधर से लिपट मेरे गीत भी लयमय बनेंगे।
जिन्दगी के कंटकों से बिंध जो मृण्मय बन गए थे,
उस गुलाबी स्पर्श से वे आज फिर चिन्मय बनेंगे।
यों तो हैं कितने झकोरे जिन्दगी की वाटिका में —
चाहतीं साँसें पवन वह
जो उन्हें परिमल बना दे।
गीत ढूँढे उस अधर को
जो उन्हें सरगम बना दें।
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