आओ लौट चलें अब घर को
आओ लौट चलें अब घर को
उस धरती पर
धूल में जिसकी खेले बड़े हुए हम
उस चौखट पर जिसका दामन थामे खड़े हुए हम
अँगनाई वह जिसमे हमने गिर गिर कर सीखा था चलना
तुतलाहट सीखी थी हमने रोना सीखा और मचलना
लौट चलें हम उस आँगन को
उस चौखट को
उस पीहर को
आओ लौट चलें अब घर को
अँगनाई वह
तुलसी जिसमें अब भी अपनी महक लुटाती
जिसका चौरा देवालय था अक्षत चंदन जिसकी माटी
सभी मन्नतें माँगी हमने जिस पर मत्था टेक–टेक कर
ध्वजा और तुलसी थे अपने पीर पयंबर मथुरा काशी
पूजें एक बार फिर हम चल
उस माटी को
उस अंबर को
आओ लौट चलें उस घर को
उस आँगन की
तुलसी ने ही हमको सब संस्कार सिखाए
अर्घ्य सिखाया मंत्र सिखाए और सिखाईं वेद ऋचाएँ
जहाँ कुटुम थी सारी वसुधा सब चाचा मामा मौसी थे
एक प्यार की भाषा जिसने ह्रस्व दीर्घ अनुस्वार सिखाए
फिर से एक बार हम सीखें
जीवन के
ढाई आखर को
आओ लौट चलें अब घर को
बीत गए है
बहुत बरस अब भैया बूढ़े होने आए
भाभी की पैंजनी का स्वर चुप गुमसुम है अपना आँगन घर
राख हुई हैं आज चिता में जल नसीहतें बाबू जी की
डूब गए हैं श्मशान में माँ की ममता के तुतले स्वर
अब भी शायद ढूँढ सकें हम उस मसान के सूनेपन में
"बबुआ" जैसे मीठे स्वर को
खोए हुए अपने
उस घर को
आओ लौट चलें हम घर को
दीवाली के
दीपों में अब नहीं नेह भर पाता कोई
सावन के झूलों के ऊपर मेह नहीं मँडराता कोई
भरी जेठ की दुपहरिया में आम नहीं चूते धरती पर
फागुन जब चढ़ता महुए पर तब मचान पर झूम झूम कर
होली की मस्ती में अल्हड़ फाग नहीं अब गाता कोई
चलो आज लौटा ले आएँ
उस फागुन को
उस सावन को
आओ लौट चले अब घर को
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