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अनुभूति में मनीष जोशी की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
उदारीकरण : उपसंहार
तुम नहीं थीं
प्रभात
भटकटइया फूल
शोय शोय

 

प्रभात

क्या अभी भी बैठे हैं वहाँ
सपने देखने वाले
चिड़िया की कलगी पर
चीड़ों की फुनगी पर
देखते हैं आभा के रक्तिम
जहाँ दीखते हैं गहरे से काले

लौटने वाले
साए लंबे होते हैं छाया से प्रेत
गर्म हवाएँ
देस के भेस लौटती आशाएँ
बरसात की बाती उम्मीदें जिन पे गहन बिके खेत
भाषाओं से खारे समवेत
रेत की शहतीरें, रेलमपेल के मर्ज़
जमा खर्च कुछ चुकाए/ अनचुके ज़मीनी क़र्ज़
गिरहबान में छले छाले
दर्ज़ है तारीख में
खोये पाए हिसाब के हवाले

अस्त-व्यस्त
डब्बे चित्रपटों में बदलते दुनियावी
दुविधा की सुविधा के बेशकीमती मरहम
द्रुतगति की सुर्खियों में छींकते महानतम
आदतन बाँटते हैं झोल दिलासाएँ
गुफाएँ, सुरंगें, कंदराएँ
पेट को जोड़ने हाथ से काटने के उपक्रम
कहाँ जाएँ - झूठ में या जूठे सच में
हैं लस्त-पस्त
लम्बी चढ़ाई के पहिये
चरमराये सम्भव असंभव को कूदने फाँदने वाले

ऐसे में फ़िलहाल
चुपकी ज़मीन चुपके से
दिग्भ्रमित आसमानों पर रोई है
आराम के मकानों की राह
इत्मीनानों से मुड़के
बहरहाल
बलुआ धसानों में खोई है
गिनती की सूखी उँगलियों में
कितने बुत पत्ते हैं बन टूटने वाले
बस इस बरस के बसंत
बरसे हैं पतझड़ के पतनाले

आत्मीय सर्वनाम
संज्ञा शून्य तागों में
लटके स्मृतियों के चले वर्ष
चौंकते चटखते विषाद को
उल्लास में ढूँढते ढले उत्कर्ष
पकड़ से निकलते जकड़ी आँखों से पकड़ते
संघर्ष से परिणाम
परिजनों से पत्र
काढ़े संवाद की रेखाओं के दुखड़े वक्र
समय चक्र में गड्डम-गड्ड सरे आम
जाले ही जाले
ज्यों हर लड़ाई के हारे नाम
जीते हैं हरिनाम के सम्हाले

अनवरत
वैसे ही कटते हैं सुख जैसे
दुःख ढक जाते हैं
भय के ताबूत भरे दिन
दबे पाँव पक जाते हैं
आहटों को टोहते
प्रभाहत
ठिकानों में
चाभियाँ भी उनकी हैं उन्हीं के हैं ताले
धूप छाँव में
यों ही बैठे हैं सपनों में अपनों में देखने वाले 

८ जून २०१५

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