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अनुभूति में भारतेंदु श्रीवास्तव की रचनाएँ—

तुकांत में--
तन पराग
रसमय गुंजन

संकलन में—
होली है – कैनेडा में होली

 

तन पराग

मधुमास बहार आगमन पर,
सुगन्धित होता हैं बाग बाग,
मँडराकर मधुकर गुन गुन कर,
करते मधु पान पुष्प पराग!

पावस ऋतु में नीरद नीर
बरसाते, हैं भरते तड़ाग,
शृंगार सौंदर्य झलक रहा,
प्रकृति पर चढ़ा है सुहाग।

कोई न नियंत्रण नियम यहाँ,
नहीं कोई यहाँ पर है बाधा,
प्रकृति प्रागंण में रास रचा,
प्रकृति कृष्ण प्रकृति राधा!

प्रतिबंध संतुलन का,
स्वयं कुदरत ने खुद ही है साधा,
पर पूर्ण न यह रोमांच कथा,
अध्याय अपूर्ण है आधा।

नर जाति प्रकृति का भी तो है,
एक अमूल्य अनुपम ही अंग,
सभ्यता की सूली पर इसको,
चढ़ा कर बना दिया है अपंग!

कल्पना प्रकृति की ही देन,
कविता भी उसका रस और रंग,
कामना प्रस्फुटित उससे ही,
सुनकर 'सत्य' न हो जाओ दंग।

यौवन में सभी निखरते तन,
पर कुछ में होता अतिशय मद,
भृकुटि नयन नासिका श्रवण अधर,
क झलक करती गद गद!

मोहक काया सुगठित तन पर,
मुग्ध करते उन्नत अंग लद,
परिमल शरीर का बिखराते,
रोमांचित पुलकित और सुखद।

कहीं श्याम त्वचा, कहीं गौर वर्ण,
कजरारी आँखें कहीं नील नयन,
कहीं सुवर्ण केश हैं घुँघराले,
हीं निशा सरीखे बाल सघन!

कहीं भारी आकर्षक वाणी,
कहीं स्वर सप्तक से सुरीले वचन,
लंबे तरु से गगनचुम्बी शरीर,
कहीं लघु रूप आकृष्ट बदन।

सच्चे मोती सी दंत अवली,
अँगुलियाँ कली अंकुर जैसी,
सुन्दरता सीमा लाँघ कपोल,
पद आकृति न निर्मित वैसी!

अंगागिभाव अति अनूठा,
सुन्दर अंगों से देह लसी,
अनदेखे का पहन नकाब,
तन पराग से हो न आदी–खाँसी।

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