अनुभूति में
डा. अजय त्रिपाठी की रचनाएँ—
मैं आया हूँ
है याद मुझे |
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है याद मुझे
है याद मुझे वो गलियारा वो इक आँगन वो चौबारा,
वो चंचल बहती शोख नदी मादक समीर वो वन प्यारा।
वहाँ ऊँचे थे कुछ पेड़ बहुत जो नभ को छिपा ही लेते थे,
उनके पत्तों को बींध–बींध और फिर धरती पर गिर–गिर के
छाँव और धूप के कुछ टुकड़े आपस में खेला करते थे।
उस आँगन में ए दादी तुम मुझको खूब खिलाती थीं,
अच्छाई का सच्चाई का मुझको नित पाठ पढ़ाती थीं।
सीधे–सादे उन किस्सों में तुम सीख बड़ी दे जाती थीं,
हर इंसां को इंसां समझो ये बात रोज़ समझाती थीं।
वहाँ सहज सरल मैं जीता था वहाँ बचपन मेरा बीता था,
वहाँ भोलेपन की माटी में सपनों का अंकुर फूटा था।
पेड़ों पर सावन के झूले भूलें तो कैसे हम भूलें,
हर छोटी बात पे हँसता था जीवन झिलमिल कैसे भूलें।
फिर इक दिन वो भी आ पहुँचा जब मुझको
दूर ही जाना था,
विद्या अर्जित करके
अपना जीवन ये सफल बनाना था।
उस कुम्हलाए से चेहरे पर रेखाएँ कुछ थर्राई थीं,
प्यार भरी वो आँखें फिर झिलमिल–झिलमिल हो आईं थीं।
मैं छोड़ चला फिर साथ तेरा और सफ़र बना जीवन सारा,
जाने किस मोड़ पे छूट गया वो इक आँगन वो चौबारा।
कब बचपन के वो खेल खिलौने छूट गए कुछ याद नहीं,
कब दूर चला आया तुमसे क्या बोलूँ मैं कुछ याद नहीं।
थी याद तुम्हारी बसी हुई मेरे मन की हर धड़कन में,
क्या तुम भी मुझको याद करो क्या जानूँ मैं, था पास नहीं।
वो शहर जहाँ मैं जा पहुँचा एक जगह अजूबी थी यारों,
चालाकी, झूठ का राज वहाँ सच्चाई कुंठित थी यारों।
बचपन की शिक्षा ने मुझको पल–पल पर दिया सहारा था,
अब इक कमरे के भीतर ही आँगन भी था, चौबारा था।
कुछ पा लेने के बाद मुझे अब याद गाँव ही आया है,
बचपन की यादों ने मुझको फिर वापस यहाँ बुलाया है।
आया हूँ तो सब बदल गया पनघट, चक्की, झूले, मंदिर,
कोई मुझको न बता सका दादी को कहाँ सुलाया है।
वो प्रेम मूर्ति कहाँ गई जीवन की पूंजी कहाँ गई,
शिक्षा की देवी कहाँ गई वो एक कहानी कहाँ गई।
है कौन मुझे जो बतलाए मैं जीवन में यों क्यों हारा,
क्यों छूट गया था प्रभु मेरे वो इक आँगन वो चौबारा।
अपने आँगन से प्यार करो अपने गलियारे में खेलो,
अपनी नदिया के तीर चलो तुम चंचल लहरों से खेलो।
जो वक्त गुज़र अब जाएगा फिर कब आएगा दोबारा,
तुम तरसोगे फिर आँगन को ढूँढोगे अपना गलियारा।
है याद मुझे वो गलियारा वो इक आँगन वो चौबारा।
१६ अप्रेल २००६
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