आज तक
तुमने मुझे
जो शब्द दिए थे
पहली मुलाकात में
सावन बनकर
छा गए हैं
आँखों में
आज भी बची है
उन बूँदों की नमी
जो छिटक दी थी तुमने
मेरे चेहरे पर
बस यूँ ही
गुलाबी काग़ज़ में
लिखी वह
चिट्ठी उड़ गई है
बादलों में कहीं
दिशाएँ बाँच रही हैं
ज़रा गौर से सुनो
अब भी
बह रही है वो नदी
जिसके किनारे बैठ
कंकड़ फेंकते थे
नहाते चाँद पर
चुनरी के छोर पर
बँधा है अब भी
वो लम्हा
जिसके सहारे
जी रही हूँ
मैं आज तक।
६ फरवरी २०१२
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