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अभिव्यक्ति में विजय कुमार श्रीवास्तव 'विकल' की रचनाएँ

जीवन की साध
परिवर्तन
मधुहीन आज यौवन प्याला
मानवता की द्रौपदी
मुझे दिन में भी अंधेरा दीखता है
रात की दुल्हन
सात क्षणिकाएँ
हृदय वीणा को न जाने कौन झंकृत कर रहा है
 

 

मानवता की द्रौपदी

मानवता की द्रौपदी राजनीति के दाँव चढ़ी
जातिगत विग्रह के दु:शासन
अधिकार लोलुप कुछ व्यक्तियों के दुर्योधन ने
उसके शील सौंदर्य
संवेदना शालीनता कोमलता
प्यार, बंधुत्व आदि के
तार लगी साड़ी को
निर्लज्जता के निष्ठुर करों से खींचा
अनैतिकता के पांडु रोग से ग्रस्त
शासक पांडवों का खून पानी बन गया
समाज सेवियों का भीष्म
असामाजिक तत्व रूप कौरवों का अन्न खाकर
अन्याय का विरोध करना भूल गया
मानवता की द्रौपदी
चीखी चिल्लाई राष्ट्रमंडल वासिन प्रभु
मेरी इज़्ज़त बचाओ
इन दुराचारियों
स्वार्थांधों
धन लोलुपों
चंद चाँदी के टुकड़ों के लिए
भोली भाली जनता का गला काटने वालों के
निष्ठुर करों में पड़ी
मुझ अबला को बचाओ
विनाशोंमुख राजनैतिक प्रपंचों में व्यस्त
उन प्रभुओं को अवकाश कहाँ
किसी अबला का अंतर्नाद कैसे सुनें
भारत के प्राचीन इतिहास गगन मंडल से आवाज़ आई
बहन द्रौपदी रोओ मत
चिल्लाओ मत
उन्हें दूर कहाँ ढूँढ़ती हो
वह तो तुम्हारे अति निकट
तुम्हारे हृदय प्रदेश में ही स्थित हैं
भारत की मिट्टी पानी और वायु से उत्पन्न
भारतीय संस्कृति और सभ्यता रूप
कृष्ण को पुकारो
विश्व बंधुत्व की साड़ी बढ़ा
तुम्हारे इज़्ज़त की रक्षा
वही करेगा वही करेगा वही करेगा

24 फरवरी 2007

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