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अनुभूति में डॉ. विजय शिंदे की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
असुरों की गली में
बारिश थम गई
भविष्य के प्रति आशा

मजबूर हूँ

 

असुरों की गली में

सुई के पास से
मैं जब-जब गुजरता हूँ।
तब मुझे लगता है
सुई की नोंक पर एच.आय.वी. बैठा है।
वह मुझे देख
बंदर-सा दाँत दिखा रहा है।
तब मैं अपने आपको,
असुरों की गली में पाता हूँ।

खून की बोतल के पास से
मैं जब-जब गुजरता हूँ।
तब मुझे लगता है
खून की बोतल में
सड़ी हुई नाली का पानी भरा है।
उसमें बैठा विषाणु,
मुझे देख खलबली मचा रहा है।
तब मैं अपने आपको,
असुरों की गली में पाता हूँ।

किसी वेश्या के पास से
मैं जब-जब गुजरता हूँ।
उसे देख मुझे लगता है
उसने साड़ी पहनी नहीं है।
अपने शरीर को एड्स के विषाणुओं से लपेट
रास्ते पर नंगी खडी है।
तब मैं अपने आपको,
असुरों की गली में पाता हूँ।

२१ अक्तूबर २०१३

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