अनुभूति में
सुधा अरोड़ा की
रचनाएँ -
लंबी कविता में-
शब्द सिर्फ शब्द... देश का कानून नहीं बदल सकते
(१९९५ में नयना साहनी (तंदूर) हत्या कांड और उसके बाद अंजू सिंह इल्यासी की
आत्महत्या के बाद इसे लिखा गया।)
छंदमुक्त में-
महिला दिवस के अवसर पर- ''अकेली
औरतें`` शृंखला की पाँच कविताएँ-
एक - यहीं कहीं था घर
दो - धूप तो कबकी जा चुकी है
तीन - जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थीं
चार - अकेली औरत का हँसना
पाँच- अकेली औरत का रोना |
|
तीन- जिन्हें वे
संजोकर
रखना
चाहती
थीं
वे रह रह कर भूल जाती हैं
अभी अभी किसका फोन आया था
किसकी पढ़ी थी वह खूबसूरत सी कविता
कुछ अच्छी सी पंक्तियाँ थी
याद नहीं आ रहीं . . . .
दस साल हो गये
अजीब सी बीमारी लगी है जान को
रोग की तरह.... भूलने की
बस, कुछ भी तो याद नहीं रहता
सब भूल - भूल जाता है
वह फोन मिलाती हैं
एक क़रीबी मित्र से बात करने के लिए
और उधर से 'हलो` की आवाज़ आने तक में
भूल जाती हैं किसको फोन मिलाया था
वह हृ शर्मिन्दा होकर पूछती हैं,
'बताएंगे , यह नंबर किसका हैं?`
'पर फोन तो आपने किया है !`
सुनते ही वह घबराकर रिसीवर रख देती हैं
क्या हो गया है याद्दाश्त को
बार-बार बेमौके शर्मिन्दा करती है !
किसी पुरानी फिल्म के गीत का मुखड़ा
इतराकर खिलते हुए फूल का नाम
नौ बजे वाले
सीरियल की कहानी का
छूटा हुआ सिरा,
कुछ भी तो याद नहीं आता
और याद दिलाने की
कोशिश करो
तो दिमाग की नसें टीसने लगती हैं
जैसे कहती हों, चैन से
रहने दो,
मत छेड़ो, कुरेदो मत हमें !
बस, यूं ही छोड़ दो जस का तस !
वर्ना
नसों में दर्द उठ जाएगा
और फिर जीना हलकान कर देगा,
सुन्न कर देगा हर चलता
फिरता अंग
साँस लेना कर देगा दूभर
याददाश्त का क्या है
वह तो अब दगाबाज़
दोस्त हो गयी है । कूरियर में आया पत्रिका का ताजा अंक
दूधवाले से लिए खुदरा पैसे
कहाँ रख दिए ,
मिल नहीं रहे
चाभियाँ रखकर भूल जाती हैं
पगलायी सी ढूँढती फिरती है घर भर में
एक पुरानी मित्र के प्यारे से खत़ का
जवाब देना था
जाने कहाँ कागजों में इधर
उधर हो गया
सभी कुछ ध्वस्त है दिमाग में
जैसे रेशे रेशे तितर बितर हो
गये हों ...
नहीं भूलता तो सिर्फ यह कि
बीस साल पहले उस दिन
जब वह अपनी
शादी की
बारहवीं साल गिरह पर
रजनीगंधा का गुलदस्ता लिए
उछाह भरी लौटी थीं
पति रात को
कोरा चेहरा लिए
देर से घर आये थे
औरतें ही भला अपनी शादी की
सालगिरह
क्यों नहीं भूल पातीं ?
बेलौस ठहाके, छेड़छाड़, शरारत भरी चुहल,
सब बेशुमार दोस्तों के
नाम,
उनके लिए तो बस बंद दराज़ों का साथ
और अंतहीन चुप्पी
और वे झूठ की कशीदाकारी वाली चादरें ओढ़े
करवटें बदलती रहतीं रात भर !
पति की जेब से निकले
प्रेमपत्रों की तो पूरी इबारतें
शब्द दर शब्द
रटी पड़ी हैं उन्हें -
चश्मे के केस में रखी चाभी से
खुलती खुफिया संदूकची
के ताले से निकली -
सूखी पतियों वाले खुरदरे रूमानी कागज़ों पर
मोतियों सी
लिखावट में प्रेम से सराबोर
लिखी गयी रसपगी शृंखला शब्दों की
जिन्हें
उनके कान सुनना चाहते थे अपने लिए
और आँखें दूसरों के नाम पढ़ती रहीं ज़िन्दगी
भर ! सैंकड़ों पंक्तियाँ रस भीनी
उस 'मीता` के नाम
जिन्हें वह भूलना चाहती हैं
रोज़ सुबह झाड़ बुहार कर इत्मीनान से
कूड़ेदान में फेंक आती हैं -
पर वे हैं
कि
कूड़ेदान से उचक उचक कर
फिर से उनके ईद - गिर्द सज जाती हैं
जैसे उन्हें मुँह
बिरा - बिरा कर चिढ़ा रही हों।
......और इस झाड़ बुहार में फिंक जाता है
बहुत सारा वह सब कुछ भी
याददाश्त
से बाहर
जिन्हें वह संजोकर रखना चाहती थीं,
और रख नहीं पायीं ........
७ मार्च २०११ |