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अनुभूति में सुधा अरोड़ा की
रचनाएँ -

लंबी कविता में-
शब्द सिर्फ शब्द... देश का कानून नहीं बदल सकते
(१९९५ में नयना साहनी (तंदूर) हत्या कांड और उसके बाद अंजू सिंह इल्यासी की आत्महत्या के बाद इसे लिखा गया।)

छंदमुक्त में-
महिला दिवस के अवसर पर- ''अकेली औरतें`` शृंखला की पाँच कविताएँ-
एक - यहीं कहीं था घर
दो - धूप तो कबकी जा चुकी है
तीन - जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थीं
चार - अकेली औरत का हँसना
पाँच- अकेली औरत का रोना

 

 

चार - अकेली औरत का हँसना
 
अकेली औरत
खुद से खुद को छिपाती है।
होंठों के बीच कैद पड़ी हँसी को खींचकर
जबरन हँसती है
और हँसी बीच रास्ते ही टूट जाती है ......

अकेली औरत का हँसना,
नहीं सुहाता लोगों को।
कितनी बेहया है यह औरत
सिर पर मर्द के साये के बिना भी
तपता नहीं सिर इसका ....
मुँह फाड़कर हँसती
अकेली औरत
किसी को अच्छी नहीं लगती।
जो खुलकर लुटाने आए थे हमदर्दी,
वापस सहेज लेते हैं उसे
कहीं और काम आएगी यह धरोहर !

वह अकेली औरत
कितनी खूबसूरत लगती है ....
जब उसके चेहरे पर एक उजाड़ होता है

आँखें खोयी खोयी सी कुछ ढूँढती हैं,
एक वाक्य भी जो बिना हकलाए बोल नहीं पातीं
बातें करते करते अचानक
बात का सिरा पकड़ में नही आता,
बार बार भूल जाती है - अभी अभी क्या कहा था।

अकेली औरत
का चेहरा कितना भला लगता है ....

जब उसके चेहरे पर ऐसा हृ शून्य पसरा होता है
कि जो आपने कहा, उस तक पहुँचा ही नहीं।
आप उसे देखें तो लगे ही नहीं
कि साबुत खड़ी है वहाँ।
पूरी की पूरी आपके सामने खड़ी होती है
और आधी पौनी ही दिखती है।
बाकी का हिस्सा कहाँ किसे ढूँढ रहा है,
उसे खुद भी मालूम नहीं होता।
कितनी मासूम लगती है ऐसी औरत !

हँसी तो उसके चेहरे पर
थिगली सी चिपकी लगती है,
किसी गैरजरूरी चीज़ की तरह
हाथ लगाते ही चेहरे से झर जाती है .......

७ मार्च २०११

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