मानुष चौपाया
सात पुश्त के खेत रिसाने
गिरवी छपरी-छाया,
धूप चढ़े दिन तपे अकाश
पाँच तत्व की झुलसी काया!
लटे-दूबरे आधे-पौने
चरी फसल के शेष तिनूके,
खलिहानों-खिरकों में उड़ते
काग-कगौरी चार चनूके,
सूद चुकाते उम्र बिलानी
मूल न पुरखों का भर पाया!
बड़े जतन से ओढ़ बिछाई
फिऱ भी चादर, दाग-दगैली,
भाग कोसती रोए कुटिया
ऐन दोपहरी हँसे हवेली,
छलनी-छलनी बजर करेजा
आँचों तड़पे कोखों ज़ाया,
खड़े लठैत लुकाठी लेकर
सपनों की पहरेदारी में,
आधे तन पर चले बसूला
आधा फँसा हुआ आरी में,
साबुत मानुष दाढ़ों दाबे
बियाबान नापे चौपाया!
१८ फरवरी २००८
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