आभार
वनस्पतियों का हरापन
नीलिमा आकाश की
गोद ममता की
पिता के प्यार का विस्तार,
सबका मानता आभार!
लताओं की छरहरी छाँह में
खुलती पाँखुरी के साथ
यात्रा गंध की चलती,
दृष्टि-दर्पण में अचानक
कौंधता अपनाव
टहनी देह की हिलती,
ओस-भीगी दूब का
परस आमंत्रण
अभी भी याद
गोपन हथेली का
खुला-सा प्यार,
सबका मानता आभार!
पंछियों के कलरवों से
भीगती सुबहें
उदासी तोड़ती शामें,
सहजनों की आस्था लगती
बुढ़ापे की लकुटिया
बचपने की अँगुलियाँ थामे,
एक बस्ती का भरापन
गाँव-खेरे की मिताई
मेड़-खेतों की चिन्हारी
अब भी बाँधती
व्यक्तित्व का संसार,
सबका मानता आभार!
१८ फरवरी २००८
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