अनुभूति में
शुभम तिवारी शुभ की
रचनाएँ -
छंदमुक्त में-
घर
जले हुए मकान की खिड़की पर
टूटे हुये मकान से
बाहर आओ
मैं और बंजारा |
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मैं और बंजारा
नदी के किनारे गाते उस
बंजारे से मैंने कहा
कुछ ऐसा सुनाओ
दुख दर्द सब मिटाओ।
वह गाते-गाते रोता था
हीर सुनाते रोता था
मेरी आखें भी भर आईं
नदी भी खू़ब लहरायी
बादल भी बे-मौसम बरसे
हम हीर के पीछे रोते थे
मैंने पूछा, ''क्या तुमने भी कभी प्यार किया?''
''नहीं किया, न कोई कभी आयी।''
''तो तुम्हारी आँखें कैसे भर आयीं?''
''मैं रोता हूँ, जब-जब हीर ये गाता हूँ
अजीब-सा कुछ हो जाता है।
सब भूल-भाल मैं जाता हूँ।
घंटो मैं रोता जाता हूँ।
ये नदी भी उस दिन रोती है।
ख़ूब उफ़ान पे होती है।
ये पेड़ भी उस दिन रोते हैं।
ये कोयल उस दिन चीख़-चीख़ के गाती है।
लगता है हीर को बुलाती है।
ये रोना मेरा उस प्यार पर जो अब भी कितना मुश्किल है।
पूरे-पूरे से लगते हैं, हम कितने अब भी अधूरे हैं।
मैं उठा और चला आया
अब उस हीर को जब हम गाते हैं बंजारे से हो जाते हैं।
सुध-बुध भूलकर हम भी रोज़ नदी किनारे जाते हैं।
१ अक्तूबर २०१८
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