अनुभूति में
शेषनाथ प्रसाद की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
अपने पलों के अंतरिक्ष मे
एक किरण सा
संगुम्फन |
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अपने पलों के अंतरिक्ष में
१.
प्रिये, प्राणाधिके,
आओ, कुछ पल बैठें
कुछ बातें करें
बड़ी मुश्किल से मिले हैं ये पल
जीवन की उमस से छिटक कर.
आओ, कुछ अपने में
कुछ अपना-सा हो लें
संवेदना के परमाणुओं से
अपने पोरों को तर कर लें.
पृथ्वी के अंतरिक्ष में
हमने बहुत दौड़ लगा ली
दृश्य के पोरों को भेद कर
दृश्य के पोरों की थाह ले ली.
आओ, कुछ अपने ही भीतर के
अपने ही पलों के अंतरिक्ष में
प्रवेश करने के लिए
कुछ सूक्ष्म हो लें
फिर कोई पल मिले न मिले.
जीवन की त्वरा में
फिर कभी थिर हों न हों
आओ,
समय की इस गति में
थोड़ा थिर हो लें.
कब तक टँगे रहेंगे
सृष्टि के इन रंध्रों में
अस्तित्व की घिसती प्रतीति के लिए.
आओ कुछ पल बैठें
और इस प्रतीति को
अनुभूति में सरकाएँ
अनुभूति की करुणा से भींग जाएँ.
आओ बैठें
कुछ मौन साधें
ताकि हमारे पोर पोर में
निःशब्द की संवेदना
पुर जाए.
२.
प्रिये,
ऐसा नहीं है कि
हम सेवेदनशील नहीं हैं
हमीरी संवेहनशीलता
सिमटी है सहमी है.
यह
अपने सीमित आयामों में ही
पलती बढ़ती, करुण होती
जीवन के संघर्षों की मार से
भोथरी हो चली है.
जीवन की आपा धापी में
हम इसके फैलाव को ही
देखते रहे
उसीसे जूझते रहे
और यह जूझ
इतनी सघन थी
कि हमें पता ही न चला
समय की नदी में
जीवन की कितनी ही लहरें
उठीं गिरीं और तिरोहित हो गईं.
अभी जब
हमारी आँखें खुलीं हैं
अचानक
किसी बोध से सिहर कर
हमने कुछ पल छीने हैं
काल के प्रवाह से.
अभी हमें लगता है
हम अपने में हैं अपना होकर
हमारे होने में
अस्तित्व की कलियाँ
खिलने को हैं.
आओ, कुछ पल बैठें
कुछ और अपना हो लें.
३.
केवल सोच लेने भर से
अथवा इरादा कर लेने भर से
हम अपना हो सकेंगे
ऐसा नहीं लगता
समझता भी नहीं मैं ऐसा.
अब देखो
हमें मौन और शांत बैठे
यहाँ कई पल बीत गए
पर मैं अनुभव करता हूँ
मेरी देह के आपाद परमाणुओं में
कोई लय नहीं सध रही
तेरे चेहरे पर खिंची
तेरी प्रतीतियों की लकीरों में भी
यही पढ़ रहा हूँ मैं
मन में स्थिरता सधे बिना
हम अपना हो सकेंगे
मुझे नहीं लगता.
हमारे जीवन की शैली
कुछ ऐसी हो गई है कि
किसी बिंदु पर
कुछ पल ठहर लेने
कुछ पल टिक रहने में
हमें उलझन महसूस होती है
उस बिंदु से जुड़ना
हमसे नहीं हो पाता.
एक पल इधर दृष्टि फेरो
देखो, उस बड़े गड्ढे में
पुरइन के पत्तों पर
प्रकृति विहँस रही है
कुमुदनी की उदग्र
कुछ बंद कुछ खुली पंखुरियों में
वह इठला बलखा रही है
मंद मंद बहता समीर भी
कैसे पुष्प-नाल से खेल रहा है
आस पास की लहरती हरियाली
नीले आकाश से
मानो मेल मिलाप कर रही है
उसमें सर उठाए कुछ पौधे
अपनी पत्तियों की तूलिका से
छितिज पर चित्रकारी कर रहे हैं.
पर देखो न
मन को लुभाता
यह अपना सा लगता दृश्य
लौ भर की दूरी पर होकर भी
कितनी दूर है हमसे
जी करता है
हम झूमें, नाचें
हम वही होकर अपना हो लें
वह हमारी ही प्रकृति का
हिस्सा जो है
पर तनावों से भरा यह परिमंडल
हमें सरल होने नहीं देता
प्रिये,
आओ कुछ पल ठहरें
अपने चित्त के आकाश में
लरजते अपद्रव्यों को
ध्यान से देखें, परखें
और अपने बोध में ले लें
१५ अप्रैल
२०१३ |