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अनुभूति में संजय अलंग की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
ईश्वर का दुख
गुलेल
झुमका बाँध
प्यास
सलवा जुडूम के दरवाजे से

 

सलवा जुडूम के दरवाज़े से

(1)
जंगल के बीच निर्वात तो नहीं था
सघनता के मध्य
समय दूर तक बिखरा था
और उसी से सामना था
उम्मीद की फसल जरूर उगाते
पर वह थी ही नहीं
न तब न अब
परछाइयों का टूटना असंभव है
मानव का भी
अपनी जमीन से हटे नहीं
पर हम वही करते रहे हैं
जो कैदी करते हैं
धूल के मध्य आदम याद आता है
मैं नहीं

(2)

काल कोठरी के भयावह अंधेरे में
जीत के क्षण नहीं
रोशनी नहीं
घटाटोप कालिमा शाश्वत है
घेरे में भी और घेरे के बाहर भी
रात लंबी है
दरवाज़ा कोई नहीं
सुबह के लिए तैयारी भी नहीं है
खाने का आश्वासन नहीं दे पाता
जीने का आश्वासन
करेला नीम भी चढ़ता है और
सम्मान उछल-कूद भी चाहता है
कॉफी पीते हुए सल्फी क्यों याद आती है
उड़ते सफेद कबूतर
बंदूकों और सुरंगों के बीच फड़फड़ाते हैं
बाड़ के पीछे पेशाब करते सैनिक
निगरानी को चौकस हैं
अब चर्च के घंटे और
मन्दिर की घंटी
टुनटुना भी नहीं रही
ऐसे में ऋतु और रविवार चाहना भी क्या
आवाज मात्र क्रंदन है
प्रेम और शांति की हवा भी रोती लगती है

(3)
सपने हमारे जैसे नहीं हो रहे हैं
बम का छर्रा ही उत्कंठता है, विचार नहीं
बन्दूक शाश्वत है
कभी राजा पर कभी प्रजा पर
किसी के भी हाथ में हो
कहीं भी चले
मरेगा तो आदमी ही
साल, सागौन, तेन्दू भी नींदविहीन हैं
असल है, यदि यही ज़िन्दगी
तो क्यों रोती है प्रार्थना
चट्टानों से टकराकर
आँखों में विस्फोट की चिंगारी दिखती नहीं
विस्फोट सुनता नहीं
बहरापन अब बम से भी नहीं जाता
भूल जाना मरना भी
शाश्वत भरोसे को तोड़ रहा है
अनुपस्थित है हर चीज चारों ओर
बचा नहीं पा रही कविता भी
विचार को, विश्वास को, आसमान को
हदें, भूख, लालच, बन्दूक से बह रहे हैं
घेरा नहीं घेराबन्दी में
प्रेम और शांति जंजीर से जकड़ी
जुडूम के कैंप में बैठी
भात खा रही हैं शरणार्थियों के साथ

११ मार्च २०१३

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