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अनुभूति में डॉ. रेनू यादव की रचनाएँ-

तीन लंबी छंदमुक्त कविताएँ-
छाती का दर्द
नया अध्याय
प्रेम विवाह

 

प्रेम-विवाह

मंगलम् भगवान विष्णु, मंगलम् गरूड़ ध्वज
मंगलम्...
जीवन मंगलमय लगे
कर लिया प्रेम-विवाह
हृदय पर पत्थर रख
कट लिया माँ बाप से
प्रेम से सराबोर जीवन
मधुरम मधुरम गति
पकड़ने लगी
पीपल के पेड़-सी
लाभदायी भी लगी
मन करे पूज लो
मन करे छँहा लो
मन करे भूतहा पेड़ बना दो
या मन करे तो
सोमावरी अमावस्या के दिन
घुमरी घुमरी सूत भी लपेट दो
कोई छीन न ले इस रिश्ते को

तुलसी पत्ता है यह प्रेम
जिस खाने में ड़ालो
पवित्रता के साथ-साथ
बरकत भी आती है
खुशियाँ तो मानो
जीवन के अंग अंग में
भीन रहा है

लेकिन हृदय का पत्थर
कभी कभी दर्द से
दरकता भी है
ठोकर मारता है हृदय को
क्या प्रेम इतना सर्वोपरि है
कि माँ-बाप का हृदय
कुचलकर जिया जाये
कठुआ गई थी माँ
जिस दिन सुना था उसने
बिटिया ने दूसरी जाति
में कर लिया बियाह
दहाड़ रहे थे पिता
मर गई वो हमारे लिए
गरज रहा था भाई
नहीं कर सकती है बहना
ऐसा कुकर्म
लकवा मार गया
बहन को
अब मेरा क्या होगा
इन सब के बावजूद
अंदर ही अंदर फूट रहे थे
कठोर पहाड़ों के बीच
झरने के कई सोते
हहरते हहरते
काश! यह सब झूठ होता!

अपने हृदय पर रखे पत्थर
से मैंने एक टूकड़ा उठाया
और फोड़ दिया रिश्तों का सिर
ठठाकर हँस पड़ी मेरी जीत
पिता ने जब मुँह पर दरवाजा
बंद किया
आँखों में आँसू लिए हँसा विद्रोह
रूढ़िवादी मानसिकता के खिलाफ
आज नहीं तो कल अपनाना ही
है, आखिर इन्हीं की तो खून हूँ !!

खून!
खून से याद आया प्रीतम प्यारे का
आखिर वो भी तो किसी
का खून है
उसके भी माँ बाप ने
ऐसा ही किया होगा
दर्द बराबर है, पर
एक-दूजे को सँभालते
सँभालते
पीपर-पात कबका झहर
चुका है
सूखी हड्डियाँ दिख रही हैं
पेड़ पर
सूखी हड्डियों पर भला
बगुले कैसे वास करें
हृदय पर रखे पत्थर से
घुटने लगी हैं साँसें
रिश्तों में नहीं बची कोई
आस
पत्थर पहाड़ बन गया है
खुशियों के सोते बीच
दरारें भी पड़ती हैं
चार जीवन इधर तो
अट्ठारह जीवन उधर
अट्ठारह को कैसे भूल जाये
और कैसे भूलते होंगे
वे लोग
जिन्होंने जीना सीखा
हमें देखकर
मरना जाना
हमसे बिछड़कर

परंपराओं के गलियारे में
संवेदनाओं का आना जाना
गलत तो नहीं
संवेदना की बाहों में
नई रीत-प्रीत का फलना-फूलना
गलत तो नहीं
गलत तो रूढ़ियों का विकृत
रूप लेना है
लेकिन विकृतियों से भागना !!
उसे समझने के बजाय
कायरता है

प्रेम विवाह तो हो गया
पर
प्रेम-जाल में फँसे तो वे
रिश्ते हैं
जिसे समाज ने अपनी
गोदी में पनाह दी
लेकिन
भूल जाते हैं लोग
समाज में जीवन पलता है
जरूर
लेकिन समाज हमसे ही बनता है
और बनाता है नये-पुराने रीत-प्रीत

किसी का हृदय बार-बार
पत्थरों से
तोड़ चकनाचूर कर
देने से जाति व्यवस्था
तोड़ी नहीं जा सकती
और न ही अंतर्जातीय विवाह
की स्थापना की जा सकती है

विजय पताका तो
तब फहरायेगी
जब हम तुलसी बनेंगे
अपने बीज से उपजायेंगे
अनेक तुलसी के पौधे
जीते-जी पूजा के थाल में सजेंगे
या मरते मुख की शोभा
किसी चरणामृत से कम न हो
यह प्रेम जीवन
या आचमन भरे हाथ
सूखकर भी बनें अमृत
अमृत बहे हर जीवन में
रिश्तों में, रीतों में, गीतों में
क्योंकि
पूर्णता में ही खुशी
है, अधूरेपन में नहीं
प्रेम-विवाह का गीत
अधूरा है,
कुछ कर्तव्य अभी बाकी है
विजय तो तब होगी
जब किसी घुसपैठिये की
तरह नहीं
बल्कि तुलसी के पौधे की तरह
प्रेम से आँगन में लगाई जाऊँ
क्योंकि
तुलसी की पूर्णता गंगा से है।

२७ जनवरी २०१४

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