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अनुभूति में डॉ. रेनू यादव की रचनाएँ-

तीन लंबी छंदमुक्त कविताएँ-
छाती का दर्द
नया अध्याय
प्रेम विवाह

 

 

छाती का दर्द

मन से जुड़े मेरे दो चाँद
जो सूरज को जन्म देते समय
चमक उठते हैं सूरज की तरह
और फूट पड़ती हैं
ममता की किरणें
और फिर...
बड़ा कर देती हैं
उस नन्हें-से जीव को
अपने दोनों चाँद से लगाकर ...
जाग उठती है आकाश की छाया
और उस छाया में
फल-फूल उठते हैं
पेड़-पौधे, जीव-जन्तू
और समस्त संसार

संसार की परखनली में
बनते-बिगड़ते रिश्तों के बीच
किसी के प्रेम से धड़क उठती हैं
आकाशगंगा-सी धड़कनें
और
जीती हैं जिलाती हैं प्रेम को
सिर्फ प्रेम ही नहीं
किसी के कराहने से
कराह उठती हैं ये छाती
लेकर जटाधारी के जटा की विशालता
और बहाती हैं करूणा की गंगा

पर आज जब ये छाती कराह रही है
तब कोई नहीं हर पा रहा इनका दर्द
और न ही जान पा रहा दर्द की वजह
कल तक ये मेरा गुमान बन
मेरी शोभा बढाती थीं
आज इसकी ही वजह से
मैं सिकुड़ रही हूँ हीनतम दर्द से
जिसे साधारणतः किसी के सम्मुख
बयाँ नहीं कर सकती
नहीं बता सकती अपनी पीड़ा
सूनापन, घेरापन
घावपन, परिवर्तन

हीन तो तब भी महसूस करती थी
जब लोग इसे
भेड़िये की निगाह से देखते थे
या
रोटी देख रहा हो जैसे भूखा कुत्ता
ललचाई आँखों से
या
मेरी खूबसूरती का अंदाजा
लगाया जाता जब कभी
मेरी तंग चोली और
चोली के अंदर छिपे
गोल-गोल उभरे फलों से
लेकिन अब

जैसे रख दिया हो किसी ने
तपते लोहे का गोला
सीने पर
चवन्नी-सा यह गोल व्याधि
कैसे फैलता गया
लसिका ग्रंथि तक
पता ही नहीं चला
कब हजारों सर्प गेडूली बाँध
बैठ गए चाँद पर दाग की तरह
और विषैले फूफकार से
सुलगाने लगे शीतल चाँद को
सुलगते भूसे से यह तन
कब दहकता कोयला बन गया
समझ में ही नहीं आया
बर्राने लगा मेरा चाँद

कहाँ चली गयी चाँद की शीतलता
उन्नत शोभा और हृदय का गर्व
बस एक ही टीस उठती है
मुक्त कर दो
मुक्त कर दो किसी भी तरह से
मुक्त करो इस दहकते दर्द से

अब
नहीं दिखता किसी का प्यार
नहीं महसूस होता स्पर्श
नहीं उमड़ती ममता
बस समझ में आता है तो
मात्र टीस, बोझिल दर्द
छाती का दर्द

मैमोग्राम से लेकर
सर्जरी तक के सफ़र में
अटकी रही जान
हाय कैसे अलग कर दूँ
अपनी ही जान को
अपने इस असीम सौंन्दर्य से
वह भी जानबूझ कर
पेड़ से पत्ती टूट सकती है
फल गिर सकते है
डार टूट जाये
लेकिन जड़ कैसे बर्रा-बर्रा कर बिखरे
इस तन का हर हिस्सा मूलधन है
फिर कैसे सूद मान अलगा दें

सृष्टि के उदय से ही
इसके सम्मुख नतमस्तक होते रहे हैं
आम आदमी से लेकर शूर-वीर तक
रिश्तों का हर ढाँचा जूड़ता है यहीं से
और
इसके झीने पर्दे में छिपे
हृदय से
कभी इसे ढँका गया इज्ज़त के नाम पर
कभी उघाड़ा गया हक़ के नाम पर
कभी सराहा गया सौंदर्य के नाम पर
कभी दुत्कारा गया अश्लीलता के नाम पर
पर हमेशा सराहा गया ममत्व के नाम पर
लेकिन
इन सबके बावजूद
आकर्षण का प्रमुख केन्द्र यही रहा
जिसे आज स्वयं से
बिलगाकर मैं इसे अपने ही घर से
बेघर कैसे कर दूँ

जानती हूँ
सर्जरी से दर्द-मुक्त तो हो जाऊँगी
पर नहीं मुक्ति मिल पायेगी
अपने चाँद के खोने के दर्द से
न तो अब बह सकेगी इससे
वह अमृत धारा
न ही जी पायेगा इससे
नवजात शिशु
नकली प्रसाधनों से कदाचित्
शरीर की शोभा तो बढ़ जाए,
पर
नहीं मिल पायेगा मेरा खोया सौंदर्य
जिसे प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों से
सजाकर भेजा था

अब लुट चुका है मेरे मन के कोने से
मेरा चाँद
लोगों की कनखियाँ कहती हैं
बीमारी खत्म हुई
लेकिन
मुझे लगता है
इस दर्द की मुक्ति के साथ-साथ
मेरी आत्मा का कोई हिस्सा भी खत्म हुआ
और बचा है किसी कोने में
खालीपन सूनापन
घावपन परिवर्तन
अब उस खालीपन में भरती रहती हूँ
उन्नत हौसला, प्रेम और धैर्य
सब कहते हैं मैं सपाट मैदान बन गई हूँ
पर कौन समझाये
इस चाँद के रौशन दिये तले
ममता का समुद्र अब भी उमड़ता है

२७ जनवरी २०१४

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