अनुभूति में
रमेश प्रजापति
की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
अरी लकड़ी
तुम्हारा आना
तुम्हारे बिन
समुद्र |
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तुम्हारा आना
तुम्हारा आना
सूरज के वासंती फूलों का समुद्र में झरना,
उन्मत्त लहरों का मचलकर चाँद छूना,
फेन झालरों का
किनारों पर मोतियों-सा बिखरना,
पहाड़ की चोटी से-
धूप के घड़े का रिसना।
तुम्हारा आना
जीवन के बियाबान में
पटबीजनों का टिमटिमाना,
सूने वृंदावन में टालियों का टुनटुनाना,
उमस भरे कोठे में
जंगले से कूदकर,
गुनगुनी धूप और खुनक हवा का
चुपके से आकर मस्तक सहलाना।
तुम्हारा आना
बाँसों के झुरमुट में
रंग-बिरंगी चिड़ियों का चहचहाना,
खरगोश का कुलाँचे भरना।
तुम्हारा आना
तपती धरती पर जैसे-
पहली बारिश के बाद
मिट्टी की सोंधी गंध आना,
बादलों के बीच
इंद्रधनुषी रंगों का चमचमाना,
मेरे निर्जन की तपती दोपहर का
गुलदुपहरी-सा खिलखिलाना।
तुम्हारा आना
अँधेरों में सैकड़ों रास्तों का खुल जाना।
८ फरवरी २०१०
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