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अनुभूति में रमेश प्रजापति की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अरी लकड़ी
तुम्हारा आना
तुम्हारे बिन
समुद्र

 

समुद्र

असंख्य रहस्यों से लबालब
घोलता है नमक का स्वाद
हमारे लहू,
हमारे आँसुओं,
हमारे पसीने में
और तरकारी में अपना अस्तित्व।
गिरती-पड़ती
पत्थरों पर सिर पटकतीं
नदियाँ
बैठकर समुद्र की गोद में
भूल जाती हैं
लंबे सफ़र की थकान
और दुखों की कड़वाहट।

समुद्र के पेट पर तैरती
बच्चे की गेंद-सी पृथ्वी
ढोती है माँ की तरह
दुनिया का बोझ।

समुद्र लिखता है
अनगिनत हाथों से
चाँदनी रात में
रेत की सलेट पर
अपनी प्रार्थनाएँ
और दुखों के गीत।

अनंत संभावनाओं से भरी नाव
लौटती है जब चीरकर
समुद्र का सीना
इंतज़ार में डूबी बस्ती की आँखों से
झरते हैं खुशियों के फूल।

लगाकर माथे पर
सिंदूरी तिलक -सा
पलकें झुकाए साँझ
उतर जाती है समुद्र की तलहटी में,
सुबह-सवेरे उषा
उठाकर गोद में
छोटे बच्चे-से सूरज को
छोड़ देती है खेलने के लिए
आसमान के आँगन में।

समुद्र का अपने पेट में
अपने पैरों को तेज़ी से सिकोड़ना
भविष्य की संकरी गलियों में
विनाशकारी अंगड़ाई लेना है।

टूटती है जब
गहन खामोशी
गूँजता है तब बस्तियों में
समुद्र का खौफ़नाक अट्टहास।

८ फरवरी २०१०

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