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पक्की
दोस्तियों का आईना
पक्की दोस्तियों का आईना
इतना नाजुक होता जाता था
कि ज़रा-सी बात से उसमें बाल आ जाता और
कभी-कभी वह उम्र भर नहीं जा पाता था।
ऐसी दोस्तियाँ जब टूटती थीं तब पता लगता था
कि कितनी कड़वाहट छिपी बैठी थी उनके भीतर
एक-एक कर न जाने
कब-कब की कितनी ही बातें याद आती थीं
कितने टुच्चेपन,
कितनी दग़ाबाजियाँ छिपी रहीं अब तक इसके भीतर
हम कहते थे, यह तो हम थे कि
सब कुछ जानते हुए भी निभाते रहे
वरना इसे तो कभी का टूट जाना चाहिए था।
पक्की दोस्तियों का फल
कितना तिक्त कितना कटु भीतर ही भीतर !
टूटने से खाली हुई जगह को भरती थी हमारी घृणा !
उम्र के साथ-साथ
नए दोस्त बनते थे और पुराने छूटते जाते थे
बचपन के लंगोटिया यार बिछड जाते थे।
कभी-कभी तो महीनों
और साल-दर-साल उनकी याद भी नहीं आती
साल-चौमासे या बरसों बाद
उनमें से कोई अचानक मिल जाता था
कस कर एक दूसरे को कुछ पलों को भींच लेते थे
फिर कोई कहता
कि यूँ तो मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया है
पर आज तेरे मिलने की ख़ुशी में बरसों बाद एक सिगरेट पिऊँगा
दोनों सिगरेट जलाते थे।
अतीत के ढेर सारे किस्सों को दोहराते थे,
जो दोनों को ही याद थे
बिना बात बीच-बीच में हँसते थे, देर तक बतियाते थे
लेकिन अचानक महसूस होता था
कि उनके पास सिर्फ़ कुछ यादें बची हैं
जिनमें बहुत सारे शब्द हैं पर सम्बन्धों का ताप
कहीं चुक गया है।
पक्की दोस्तियों का आईना
समय के फ़ासलों से मटमैला होता जाता था।
रात दिन साथ रह कर भी जिनसे कभी मन नहीं भरा
बातें जो कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं
बरसों बाद उन्हीं से मिल कर लगता था
कि जैसे अब करने को कोई बात ही नहीं बची
और क्या चल रहा है आजकल.....
जैसा फ़िज़ूल का वाक्य
बीच में बार-बार चली आती चुप्पी को भरने को
कई-कई बार दोहराते थे।
कोई बहाना करते हुए कसमसाकर उठ जाते थे
उठते हुए कहते थे... कभी-कभी मिलाकर यार।
बेमतलब है यह वाक्य हम जानते थे
जानते थे कि हम शायद फिर कई साल नहीं मिलेंगे।
मुश्किल वक़्त में ऐसे दोस्त
अक्सर ज़्यादा काम आते थे
जिनसे कभी कोई खास नज़दीकी नहीं रही।
पक्की दोस्तियों के आईने में
एक दिन हम अपनी ही शक़्ल नहीं पहचान पाते थे।
४ मार्च २०१२ |