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पत्तियाँ
जब तक हरी हैं, भरी हैं
हरियाली से, नमक और पानी से
जब तक है रीढ़ और शिराआें में दम
जब तक उनकी असंख्य अदिख आँखों में है
धूप और हवा से अपना अन्न-जल
जुटा लेने की ताकत
तब तक टँगी रहती हैं, तनी रहती हैं
डाल से पेड़ों का अवलम्ब बनकर
सहती हुई धूप, धूल और बारिश
रचती हुई मीठी घनी छाया
और संगीत-सी सरसराहट
जिन्हें केवल वे ही रच सकती हैं
पत्तियाँ मधुमक्खियों की तरह ही
सिरजती हैं ओस की बूँदें
रात भर टपकती चाँदनियों से
जब डाल से झरती हैं
तो झरती हैं एक लय में
नृत्य करती हुई
एक ऐसा लय जिन्हें केवल
वे ही रच सकती हैं
एक ऐसा नृत्य जिन्हें केवल
वे ही कर सकती हैं !
जब वे झरती हैं डाल से
तो वे लय में झूमती इतराती नाचती हैं
यह सोचकर कि...
वे गिर नहीं रहीं
गिर नहीं रहीं
उतर रहीं हैं
ज़मीं पर !
ज़मीं पर !!
६ अप्रैल २००९ |