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स्वयंभू-युग
पुरुष
थर्मोकोल सी बस्तियों में
था जिन्दा लाशों का मरघट
विलाप करती वीणा वादिनी के
श्वेत रंग पुते कुछ काले कपूत
कई रंगे सियारों की हुआ-हुआ
चीखते रहे स्तब्ध साधक
देख गुलाबों के भेस में कैक्टस
रक्तिम शब्द, भावनाएँ याचक
तभी बेखबर रेत में सर धँसाए
बीच अचानक उन शतुर्मुर्गों के
कुकुरमुत्तों की तरह उग आया
एक स्वयंभू युग-पुरुष
तार सप्तक में गूँजने लगा
स्वनाम धन्यों का श्वान विलाप
अभिशप्त सर्जकों पर होने लगा
स्वयंभू युग-पुरुष का अट्टहास
नहीं पर अभी बाकी रहा था
वीणा वादिनी का अभिशाप
बढ़ने लगा अक्षरों का कोलहल जब
तरेरी वैचारिक क्रांति ने आँखें तब
अभिशाप की कोख से हुआ पुनर्जन्म
और ज्ञान तंतुओं का समुद्र-मंथन
मिटटी बन गए सारे युग-पुरुष
और खिलने लगे सत्यसर्जक पुष्प
२३ मार्च २०१५
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