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कबिरा के कबिरा
रहे
कबीर दास
इसीलिए रह गए न
कबिरा के कबिरा तुम
लिए लुकाठी
खड़े हो गए बाजार में
जलाने को अपना ही घर
वाह-वाह
आया क्या कोई तुम्हारे साथ
आँख मूँदते ही तुम्हारे
लड़ने नहीं लगे
तुम्हारे ही सिखाए-पढ़ाए
फूँकें तुम्हे? कि गाड़ें तुम्हें?
यही फल होता है
बाजार में खडे होकर
बाजार से अलग सोचने का।
अरे
अक्कल थी
तो बाजार में खड़े होकर
बेच देते चाहे...
मसि कागद नहीं छुआ तो क्या
लक्ष्मी को छूते
प्रेम करना भी नहीं सीखा
अरे, प्रेम
कोई ऐसी चीज थोड़े ही है
जिसके लिए सर कटाना पड़ता है
खाला के घर से
ज्यादा आसान है
प्रेम के घर में घुसना
तुम चाहते तो एक ही दाँव खेलते
बाजार तो कब्जाते ही
बड़ी-बड़ी विद्यावती ऐश्वर्यवतियाँ भी
पंक्ति बाँध
खड़ी हो जाती
तुम्हारे कृपा कोर को।
५ जुलाई २०१० |