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पापी पेट
पापी पेट कहाँ भर पाता?
टेके घुटने कितनी पीड़ा दंश न मुख से कहने पाता
पापी पेट कहाँ भर पाता?
समझोते के हर छिलके में, मुई! विवशता आँके।
फटे वसन की उधड़न में से, मुआ गगन भी झाँके।।
आँगन सा लख नंगा जीवन, ठठियाते हैं लोग।
आहत जर्जर बंदी भोगता, आयु के हर रोग।।
उपचारों के नारों बेबस, जी नहीं, मर नहीं पाता।
पापी पेट कहाँ भर पाता?
तिनके तिनके लिया सहारा, भँवर लहर में दौड़ा।
पत्थर की मूरत को झुक, भगवान बना कर छोड़ा।।
सोते जगते स्वप्न निरंतर, कोर के शालीग्राम।
झिड़की ढोता बना पशुवत, ताड़न उधड़ी चाम।।
ऋण के रण में प्यासी आशा, तृष्णा ढाढस पाता।
पापी पेट कहाँ भर पाता?
तिनके तिनके बिनते बिनते, जोड़ रहा विश्वास।
बिखर गया था महज घरोंदा, सिकता के अभ्यास।।
ज्वाल माल पर स्वयं सुलगता, क्षुब्ध बना हूं छार।
पिंजर के पंछी सा व्याकुल, पकड़ रहा आधार।।
क्रांति की हूं कसक, करूं क्या? क्लांति मिटा नहीं पाता।
पापी पेट कहाँ भर पाता?
१ मई २००४
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