अनुभूति में
बोधिसत्व
की रचनाएँ-
आएगा वह दिन भी
इलाहाबाद की बाँध रोड पर
छोटा आदमी
जागा वह बूढ़ा
दिन हुए घर से निकले
बो दूँ कविता
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जागा वह बूढ़ा
रात गए जागा वह बूढ़ा
खिसका अपनी जगह से
जैसे खिसकते हैं तारे
बिना सहारे
और गंगा के कचार की तरफ़ बढ़ गया
फिर वहाँ गायों को झुंड नहीं था
रंभाहट नहीं थी
पर लगता था वह घिरा है
देखने वालों की भीड़ से
गायों की रंभाहट चादर बन कर
छाई है उस निराला जैसे आदमी पर
कैसा-कैसा हो आया मन
मैं वहाँ क्या कर रहा था
जब वो आदमी मर रहा था
मैं सच में वहाँ था या
या कोई सपना निथर रहा था
अगर यह सपना नहीं था तो
वह आदमी कौन था जो
अपना था
अंधकार में वह क्यों रोया था
उसने सचमुच में कुछ खोया था।
24 अक्तूबर 2007
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