अनुभूति में
बोधिसत्व
की रचनाएँ-
आएगा वह दिन भी
इलाहाबाद की बाँध रोड पर
छोटा आदमी
जागा वह बूढ़ा
दिन हुए घर से निकले
बो दूँ कविता
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दिन हुए घर से निकले
कई दिन हुए घर से निकले
पर कोई उसे ढूँढ़ने नहीं निकला
न ही पूछने आया कोई दारागंज से
न ही कोई आया गढ़ाकोला से
महिसादल से
न निकला कुल्ली भाट न बिल्लेसुर बकरिहा
न चतुरी चमार
सरोज तो आ सकती थी खोजते हुए
पर भूल रहा हूँ
वह तो नहीं रही थी पहले ही
उसका तर्पण तो किया था बूढ़े ने ही
अब कोई नहीं जो ले खोज ख़बर
अब जाए कहाँ क्या करे काम
किसको बतलाए नाम-धाम
उससे किसी को स्नेह नहीं
वह पानी वाला मेह नहीं
उसका कोई इतिहास नहीं
कुछ छोटे-छोटे प्रश्नों के
उत्तर की कोई आस नहीं
घ्हटना यह कोई ख़ास नहीं
आए दिन होता है लाला
कुछ सोचो मत अब जाओ घर
गंगा की रेती पर वृद्ध प्रवर
मरता है तो मरने दो
बस अपनी नौका को तरने दो।
24 अक्तूबर 2007
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