अनुभूति में
अशोक
कुमार पाण्डेय की
रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
अकीका
कहाँ होंगी जगन की अम्मा ?
चाय अब्दुल
और मोबाइल
नाराजगी
माँ की
डिग्रियाँ |
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कहाँ होंगी जगन की अम्मा ?
सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे
सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा शर्मिंदा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुँच जाता हूँ
बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहाँ भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो
ठुनकता था मैं
और माँ बाँस की रंगीन सी डलिया में
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहाँ इंतज़ार में होती थीं
सुलगती हुई हाँड़ियों के बीच जगन की अम्मा।
तमाम दूसरी औरतों की तरह
कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी
बस जगन की अम्मा थीं वह
हालाँकि पाँच बेटियाँ भी थीं उनकीं
एक पति भी रहा होगा ज़रूर
पर कभी ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की
हमारे लिये बस हँड़िया में दहकता बालू
और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान।
हालाँकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं
अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्डिगें
औा जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका ज़िक्र
पर माँ के दूध और रक्त से मिला था
मानो इसका स्वाद
तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू
और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत था वह दृश्य।
मुठ्ठियाँ भर भर कर फाँकते हुए इसे
हमने खेले बचपन के तमाम खेल
ऊँघती आँखो से हल किये गणित के प्रमेय
रिश्तेदारों के घर रस के साथ यही मिला अक्सर
एक डलिया में बाँटकर खाते बने हमारे पहले दोस्त
फ्राक में छुपा हमारी पहली प्रेमिकाओं ने
यही दिया उपहार की तरह
यही खाते खाते पहले पहल पढ़े
डिब्बाबंद खाने और शीतल पेयों के विज्ञापन!
और फिर जब सपने तलाशते पहुँचे
महानगरों की अनजान गलियों के उदास कमरों में
आतीं रहीं अक्सर जगन की अम्मा
माँ के साथ पिता के थके हुए कंधो पर
पर धीरे धीरे घटने लगा उस खुशबू का सम्मोहन
और फिर खो गया समय की धुंध में
तमाम दूसरी चीजों की तरह।
बरसों हुए अब तो उस गली से गुज़रे
पता ही नहीं चला कब बदल गयी
बाँस की डलिया प्लास्टिक की प्लेटों में
और रस भूजा - चाय नमकीन में!
अब कहाँ होंगी जगन की अम्मा?
बुझे चूल्हे की कब्र पर तो कबके बन गये मकान
और उस कस्बे में अब तक नहीं खुली चिप्स की फैक्ट्री
और खुल भी जाती तो कहाँ होती जगह जगन की अम्मा के लिए?
क्या कर रहे होंगे आजकल
मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में
मुस्कान भर देने वाले हाथ?
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले
होती हैं अनेक भयावह संभावनाएँ...
जेबें टटोलते मेरे शर्मिन्दा हाँथो को देखते हुए ग़ौर से
दुकानदार ने बिटिया को पकड़ा दिये है- अंकल चिप्स!
२ मई २०११ |