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अनुभूति में अजय ठाकुर की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अब तुम बदल गए हो

काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता
खामोश जुबा
सिंदूरी सी याद

 

सिंदूरी सी याद

ऐसा तू कुछ कर
कि मैं सिमट जाऊँ तेरे सिंदूर के किये में
साँझ को आसमाँ की सिंदूरी देख
मुझे बड़ी तेरी याद आती है

सच पूछ तो
खानुम निहारते निहारते
यूँ अकेला आसमाँ को
तेरे बगैर लाल आँखें हो जाती है
बेताबियों को धधका के
और फिर मैं बिफ़र उठता हूँ
सिहर उठता हूँ

झिलमिल से जुगनुओं की
मध्यम-सी रोशनी में
जब चाँद और सितारों की
मौजूदगी में
तुझे अपने हसरतों के
आंलिगन में नहीं पाता हूँ
खलता है फिर

वही साँझ सिंदूरी से अँधियारे तक
वो सारा सफ़र तेरे गैर मौजूदगी में
और फिर सोचता हूँ
अब इतनी हिम्मत और कहाँ से लाऊँ
कि ऐसा एक और मंजर देखूँ
और फिर दोहराऊँ

ऐसा तू कुछ कर
कि मैं सिमट जाऊँ तेरे सिंदूर के किये में
साँझ को आसमाँ की सिंदूरी देख
मुझे बड़ी तेरी याद आती है ..

२७ मई ३०१३

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