दायरे से
दायरे से वो निकलता क्यों नहीं
ज़िंदगी के साथ चलता क्यों नहीं
बोझ-सी लगने लगी है ज़िदगी
ख्व़ाब एक आखों में पलता क्यों नहीं
कब तलक भागा फिरेगा खुद से वो
साथ आखिर अपने मिलता क्यों नहीं
गर बने रहना है सत्ता में अभी
गिरगिटों-सा रंग बदलता क्यों नहीं
बातें ही करता मिसालों की बहुत
उन मिसालों में वो ढ़लता क्यों नहीं
ऐ खुदा दुख हो गए जैसे पहाड़
तेरा दिल अब भी पिघलता क्यों नहीं
ओढ़ कर बैठा है क्यों खामोशियाँ
बन के लौ फिर से वो जलता क्यों नहीं
क्या हुई है कोई अनहोनी कहीं
दीप मेरे घर का जलता क्यों नहीं
१० नवंबर २००८
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