अनुभूति में
गुलज़ार की
रचनाएँ -
अंजुमन में-
इक नज़्म की चोरी
जिस्म
मुझे अफ़सोस है
वक्त
सादा कैनवस पे उभरते हैं बहुत से मंज़र
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वक़्त
वक़्त को जितना गूँध सके हम! गूँध लिया
आटे की मिक़्दार कभी बढ़ भी जाती है
भूख मगर इक हद से आगे बढ़ती नहीं
पेट के मारों की ऐसी ही आदत है-
भर जाए तो दस्तरख़्वान से उठ जाते हैं।
आओ, अब उठ जाएँ दोनों
कोई कचहरी का खूँटा दो इंसानों को
दस्तरख़्वान पे कब तक बाँध के रख सकता है
कानूनी मोहरों से कब रुकते हैं, या कटते हैं रिश्ते
रिश्ते राशन कार्ड नहीं हैं।
४ मई २००९ |