अनुभूति में
डॉ. दामोदर खडसे
की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
कवच
कोरे शब्द
स्मृतियों की रेत
साथ साथ
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कोरे शब्द
कविता की मुँह दिखाई पर
निकल पड़ते हैं-
शब्द कोरे-करारे...
कविता के दिखते ही
पा जाते हैं अर्थ अन्यान्य
फिर वे शब्द
मेरे नहीं रह पाते...
कभी-कभी
केवल ध्वनियों पर सवार
कंठ के महामार्ग से शब्द
हँसी में भी पिरो देते हैं सार्थकता
उच्चारण के लिए नहीं होते मोहताज वे
आँखों से भी हो जाते हैं बयान
अँगुलियाँ तक बोलने लग जाती हैं
पैरों के अँगूठे उस तरह
उकेरते नहीं होंगे जमीन पर
शब्दों को खूब समझते हैं अब भी वे
शब्द,
कविता की मुँह दिखाई पर
अपने हजार प्रतिबिंबों को देखकर
दाँतों तले अँगुली दबाते हैं-
जब हो कोई
कविता के केन्द्र में
शब्द प्रदक्षिणा का कोश बन जाते हैं।
६ जनवरी २०१४
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