अनुभूति में
डॉ. दामोदर खडसे
की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
कवच
कोरे शब्द
स्मृतियों की रेत
साथ साथ
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कवच
संवाद जब निरंतर
सुगम और सहज होते हैं
सब कुछ होता है
नजर के सामने....!
तब किसी कृष्ण की द्वारका को
लील नहीं सकता कोई समंदर
कृष्ण चुपचाप अंतर्ध्यान होते हैं
हमारे भीतर !
और एक शरारती निगाह से
भीतर का एक चित्र उभारकर
प्रकट हो जाते हैं निगाहों में
ऐसे में कोई भी संवाद
कहीं भी
‘रेंज’ से बाहर नहीं होता....
आवाज, स्पर्श, दृष्टि, अनुभूति से परे
धड़कते हैं शब्द
आँखों के सामने...
फिर कोई द्वारका में हो
या कि अपने अंतगृह में
करता है महसूस शब्दों को
अनायास ही अंजुरी
आँखों को ढाँप लेती है
और निरंजन-कवच
पूरे अस्तित्व को
आरती की लौ पहना जाती है
कोई भी अनिष्ट
कवच भेद नहीं पाता...!
६ जनवरी २०१४
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