जब भी फसलों को
जब भी फसलों को पानी की ख्वाहिश
हुई
मेरे खेतों में शोलों की बारिश हुई
मेरा घर टुकड़ों, टुकड़ों, में
बँटने को है
मेरे आँगन में कैसी ये साजिश हुई
मकड़ियों ने वहाँ जाल फैला दिए
जिस जगह भी हमारी रिहाइश हुई
चीखता हूँ मगर कोई सुनता नहीं
मेरी आवाज़ पर कैसी बंदिश हुई
जिस्म पर रेंगती छिपकिली देखकर
मेरे बेजान हाथों में जुंबिश हुई
लोग आए थे हाथों में पत्थर लिए
कल मेरे शहर में इक नुमाइश हुई
८ मार्च २०१० |