मुक्त नभ पर लालसा की
लालिमा है
पर धरा पर लाज का
कुहरा जमा है
कूच को
तैयार बैठी रात काली
भोर हाथों में लिए शत रंग थाली
मिलन का है गान यह कलरव प्रभाती
किन्तु अब भी भाग्य का
सूरज थमा है
कमलिनी के
अधर मधुकर चूमते हैं
गुम चुका चन्दा चकोरे ढूँढते हैं
रात दिन के मध्य यों अटका सवेरा
देह में अटकी हुई ज्यों
आत्मा है
हो नहीं पाईं
प्रकाशित क्यों दिशाएँ
सबल सूरज की भला क्या विवशताएँ
सोख लेता ऊर्जा–वह शून्य कैसा
क्या कलुष यह वासनाओं
का जमा है
- कुँवर रतन
सिंह |