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नहीं सूझता हाथ हाथ को
इस अँधियारे में
क्या बतलाएँ-
घर के बारे में
अचरज होता जब
खिड़की-दरवाज़े लड़ते हैं।
जर्जर से हैं जीने
जिनसे रोज़-उतरते हैं।
रोज़ फ़ासला बढ़ जाता है-
आँगन, द्वारे में।
बाहर ग़ज़ब भरा सन्नाटा
भीतर ख़ामोशी।
सहमे हुए दिखे हैं-
बक्षी, रामअधीर, जोशी।
सचमुच होंगे, ख़तरे काफ़ी-
इस गलियारे में।
तुम्हें और क्या सूरज
के बारे में समझाएँ।
तुमने स्वयं आमंत्रित-
की हैं गहरी संध्याएँ।
थोड़ा सा तो वक़्त लगेगा-
अब भिनसारे में।
- कृष्ण बक्षी |