पत्र व्यवहार का पता

अभिव्यक्ति तुक-कोश

१. ५. २०१७

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घर के बारे में

 

 

नहीं सूझता हाथ हाथ को
इस अँधियारे में
क्या बतलाएँ-
घर के बारे में

अचरज होता जब
खिड़की-दरवाज़े लड़ते हैं।
जर्जर से हैं जीने
जिनसे रोज़-उतरते हैं।
रोज़ फ़ासला बढ़ जाता है-
आँगन, द्वारे में।

बाहर ग़ज़ब भरा सन्नाटा
भीतर ख़ामोशी।
सहमे हुए दिखे हैं-
बक्षी, रामअधीर, जोशी।
सचमुच होंगे, ख़तरे काफ़ी-
इस गलियारे में।

तुम्हें और क्या सूरज
के बारे में समझाएँ।
तुमने स्वयं आमंत्रित-
की हैं गहरी संध्याएँ।
थोड़ा सा तो वक़्त लगेगा-
अब भिनसारे में।


- कृष्ण बक्षी

इस माह

गीतों में-

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कृष्ण बक्षी

अंजुमन में-

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वीरेन्द्र अकेला

छंदमुक्त में-

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विमलेश त्रिपाठी

दोहों में-

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टीकमचंद ढोडरिया

पुनर्पाठ में-

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सुमित्रानंदन पंत

पिछले माह
१ अप्रैल २०१७ को प्रकाशित
अंक में

गीतों में-
रामगरीब विकल

अंजुमन में-
विवेक चौहान

छंदमुक्त में-
कमलेश यादव

अनुभूति की कार्यशाला से-
छोटी छंदमुक्त रचनाएँ

पुनर्पाठ में-
अश्वघोष

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संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी