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छंदमुक्त कविताओं की कार्यशाला-१
अभिव्यक्ति समूह में पिछले माह आयोजित की गई- छंदमुक्त कविताओं की कार्यशाला जिसमें छोटी कविताओं पर जोर दिया गया, संचालन किया परमेश्वर फुँकवाल ने, सहयोग संध्या सिंह का रहा। कार्यशाला की
चुनी हुई रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

१. शहर की ओर

घर गाँव छूटा
छूटी हवा
छूटी पहचान
बढ़ गए हम शहर की ओर
तड़क भड़क की चाह में
किसी सुबह

दोपहर भर
भटकते रहे
ढल गयी कब शाम
छलता रहा राहों का
सूनापन
रात में
नितांत एकांत को तोड़तीं
सागर तट की लहरें

जीवन बस ऐसे चलता रहा

- मंजुल भटनागर


३. कविता के लिये


तुम
चलाते रहो
अपनी कुदाल
शोषण की बात सोचकर
रोकना नहीं
अपने यंत्रचालित से हाथ
वरना
मौत हो जाएगी
कविता की..!

- सुबोध श्रीवास्तव

५. तुम

फूटा
ज्वालामुखी
लावा
जलजलाता है
बिलबिलाती हैं
बस्तियाँ
सहम जाती हैं
मुस्कुराहटें
भस्म हो जाती हैं
उम्मीदें
‘दरकती है धरती
रह जाते हैं भग्नावशेष
और
जीवाश्म सभ्यता के
आग्नेय चट्टानों के अंतस में’
"क्रोध"
तुम भी तो ऐसे ही हो!

- डॉ शिप्रा शिल्पी


७. विश्व गौरैया दिवस

आज दोपहर
गाँव के मोड़ पर, ट्रांसफार्मर के पास
मिल गई एक बूढ़ी गौरैया
पनियाई आँखों से
आशीष देते हुए बोली
"जा भैया
जस हमार दिन बहुरे, तस तुम्हार न बहुरैं"

- प्रदीप शुक्ल


९. दर्द

शहर दर्द में है
लेकिन अट्टालिकाओं तक
नहीं पहुँच पातीं, कराहें शहर की
अब सूरज की किरणें
नहीं करती हैं धमाचौकड़ी
किसी छज्जे पर
हवाएँ भूल गयी हैं
गालों को चुपके से सहला जाना
अब न आँगन हैं, न दालान!
और न छतें रह गयी हैं
सब तब्दील हो चुके हैं कमरों में
और मुँडेरों को तलाशती गौरैया
भूल गयी है दस्तक देना
दरवाज़ों पर ...!

- आभा खरे

सच्चे दोस्त

मैं और वो
हम दोनों
एक दूसरे को नहीं जानते
लेकिन मेरे और उसके दुःख
एक दूसरे को जानते है
हमारे दुःख सच्चे दोस्त हैं

- आभा खरे


११. आँसू

कितना कुछ घुल जाता है इसमें
ख़ुशी
गुस्सा
दुःख
शून्य
आँसू भी पानी ही होते हैं क्या?

- सीमा अग्रवाल

१३. सुबह दोपहर शाम रात

दोपहर में गुम होती सुबह
शाम में समाती दोपहर
रात में डूबती शाम
और फिर
सुबह को संजोती रात
सुबह, दोपहर, शाम और रात
खुद को
जीती ही कहाँ हैं

- सीमा अग्रवाल


१५. चटक गुलाबी साड़ी

ढेर सी
रंगबिरंगी साड़ियों के बीच
चटख गुलाबी साड़ी देख
ख़ुश हुई माँ ने पूछा
कोई कुछ कहेगा तो नहीं...?
मैं रह गयी अवाक!
रोने लगा मौन
पापा को गुलाबी रंग
पसन्द था...

- भावना तिवारी
 

१७. समायोजन

उस दिन
लुप्त हो जाएगा मानव
बच सकेंगे तो
रक्तपिपासु
यानी नरपिशाच
सत्य साबित होगा
डार्विन
और
उसका
'प्रकृति एवं परिस्थिति से'
समायोजन का सिद्धांत!

- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
 

१८. मूल्य

मौत की कगार पर
खड़े होकर
जाना
जीवन का मूल्य।
शेष रह गयी ख्वाहिशों
को पूरा करने का प्रयास,
पलों को हँसते हुए
उसी अंदाज में जीना
जैसे,
कुछ हुआ ही नहीं
फिर काहे का भय
जी लो जिंदगी को।

- शशि पुरवार
 

२०. दुःख

पेशानी पर उभरी
एक छोटी लकीर
शिकन भरी
दुआ की ख़ुदा से
और माँगी निजात
उसने तुरंत खींच दी
एक बड़ी लकीर वहीं ,
छोटी लकीर
अब नही करती परेशान
वाह रे रहमदिल
तेरा जवाब नही

- निशा कोठारी
 

२१. गौरैया दिवस

एक दिवस
सभी रहे चिंता मग्न
विलुप्ति के कगार पर
खड़ी नन्हीं गौरैया के लिए
एक दिन चली बहस बस
कारण और समाधान पर

जा रही हैं
गोरैय्या जिस नेपथ्य में
वहीं से तेज़ी से बढ़ते आ रहे हैं
हमारी ओर
इस धरती को लीलने को आतुर खतरे

हो सके तो सुनो उसकी आवाज़
हो सके तो उसे आवाज़ दो
बचा लो इस धरती के हरे भरे पंख
इसके जैसी कोई और जगह नहीं

- ज्योतिर्मयी पंत

२. रिश्ते

पुरानी पीढ़ी
समझने में अक्षम
निर्वाह- नए ज़माने के
जो आदर्शों की पराकाष्ठा छूते थे
जी जान से
आज वे कहलाते हैं दकियानूस
पृथ्वी, नदी, वृक्ष, अग्नि
पूजते थे रिश्ते जोड़
अब
धन और स्वार्थ आधारित हो
खुल जाते हैं परत दर परत
प्याज के मानिंद-
अंतस शून्य
वक्त आने पर रह जाती है
सिर्फ
आँखों में नमी

- ज्योतिर्मयी पन्त


४. बेटों की माँ

बेटों की माँ
बूझती है
शेयर और क्रिकेट की शब्दावली
देखती है घर में सजे
ट्रेक्टर, जेट, लड़ाके
गुड़ियों के ब्याह
को तरसती हैं
कोमल एहसासों का
खोजती है पता
ढूँढती है वो आँखें
जिनमें अपनी अनकही
पीड़ा देख सके
चिराग से घर रौशन
तो है...पर
महरूम है उस रौनक से
जिसे लोग
बेटी कहते हैं।

- सीमा हरि शर्मा


६. पाने को किनारा

फैसला था
मझधार में जाने का
डुबकियाँ लगती रहीं
सीप की मोतियाँ मिलीं
अब किनारे की चाह
चाह न रही
ज्ञान की तली ने
ठहराव जो दिया
मिटने लगी थीं
अपेक्षाएँ
जगने लगी पिपासा
परमात्मा में लीन होने की

- ऋता शेखर मधु

८. दुःख के पके पत्ते

दुःख के पके पत्ते गिरे
मन की संधियों से झाँकने लगीं
कोंपलें सुख की
वह तूफ़ान
जो ले गया दूर
जीवन के विक्षत पन्ने
उसी से बने दलदल में
एक सुबह फूले आशाओं के कँवल
चाँद भी लौटा अमा से जीतकर
मन के आकाश में
कुछ ही पल के तो रहे जीवन के सूर्य ग्रहण
मुश्किल वक़्त ने ही मुझे दिए
करुणा के स्वर
और कर्म निश्छल
दुःख की कुदाल से ही हटे
जीवन की जमीन के जिद्दी अधिग्रहण.

- ऋता शेखर मधु


१०. जंग

ख्वाहिशों की जंग
जिम्मीदारियों के संग
अक्सर होती है
हमेशा की तरह होती हैं हावी
जिम्मेदारियाँ
मगर ख्वाहिशों ने भी
सीख लिया है उड़ना
अपना आकाश बना
अनगिनत रंगों से भरा
वहाँ टाँक आती हैं - इंद्र धनुष
पहले की तरह
अब नहीं हारती ख्वाहिशें!!

- रमा प्रवीर वर्मा


१२. चाहत

सपनों ने गुजारी
एक रात मेरे साथ
वो बिखरते रहे
यह उनकी
आदत है
मैं बटोरती रही
यह मेरी
ख्वाहिश!!

- त्रिलोचना

१४. घुटन

दबी घुटी
अनकही बातों की
लाशों का ढेर
सन्नाटे भरी वादियों में
दफन कर आऊँ!
कि
जोर से चीखूँ चिल्लाऊँ
और कुछ दिनों के लिये
अपने वजूद से लापता हो जाऊँ!!

- त्रिलोचना

१६. चूल्हा जलाती औरत

उसके माथे से टपकती श्रमाग्नि
धुआँ-धुआँ होती उसकी भूख
सामने खाली थाली लिये बैठी रधिया
मिट्टी सान कर
रोटी-रोटी खेलता मनुआ
खाट पर खाँसता रधिया का बाप
राख होती इच्छाओं की लकड़ियाँ
औंधे मुँह पड़ी
दाल, नमक, मिर्च, हल्दी
और जीरे की डिब्बी
दो रोटियों का चून
जिसमें ही, गौरैया और गाय की हिस्सेदारी
ऐसे में
रोटी बेलते वक़्त
जब उसके हाथ काँपते हैं
धरती काँप जाती है।

- पवन

१९. सपने कहते हैं

सपने कहते हैं
या तो हमें जीना जीवन भर
या कोई नया पता बता देना
जाकर बसेरा कर लेंगे वहीं
हमें भी महकना है
किसी की साँसों में
भीनी खुश्बू-सा
यूँ ही कट जाए न
पूरी उम्र तन्हाई में
थोड़ा सा ही सही
आसरा मिल तो जाता
हमें भी जिंदगी जीने को

- प्रेरणा गुप्ता

१९. शायद

इस वर्ष भी नहीं आ पायेगा
बाबा का
तलाशा हुआ दूल्हा
माँ की उम्मीद की
चौखट पर
बौने ठिगने गेँहूँ और चने
नहीं उठा पायेंगे
भारी भरकम बारात का
बोझ
खेत की बगल मॆं पड़ी
पगडंडियाँ
झुलस जायेँगी समय से पहले
जिन पर दौड़ते हैं
किसान के बच्चों के
अबोध अनदेखे
सपने
सूखा रोग से ग्रसित हल्दी
नहीं कर पायेगी
हथेलियों को पीली
शगुन की दूर्वा को
ढूंढा जयेगा
अभिलाषा के छोर तक
जेठ की कर्कश लू को आता देखकर
फागुन मॆं
दर्द से कराह उठेगी
अरहरी खेत मॆं
और यदि कुछ लहकेगा
तो वह है कीकर
बस उसी की डालों पर लटकेँगे
जलेबी नुमा जिद्दी फल
जिनसे नहीं बनतीं हैं
रोटियाँ
और नहीं लेता है कोई उन्हें
दहेज मॆं
आमबौर को कर दिया इनकार
ताम्बई पत्तियों ने
फलने से
मादक मँजरी की सुगंध की
दीवानी कोयल
रह जाएगी उनींदी
और रह जयेगी
किसान की बेटी
बिन ब्याही शायद
इस वर्ष भी

- कल्पना मनोरमा


कार्यशाला- २०
१ अप्रैल २०१७

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