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राम भरोसे
बैठे सोचें |
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कुछ घर की, कुछ इधर उधर की
कही अनकही, रह रह कोचें
रामभरोसे, बैठे सोचें।
पिछले साल हुआ बँटवारा
अलग हो गये नंबर खसरा
दो दो कोठरी थोड़ा आँगन
हिस्से आया आधा ओसरा
गहरे घाव भर गये फिर भी
दिल में बाकी रहीं खरोचें
रामभरोसे, बैठे सोचें।
ढाई बीघे खेत के बूते
रोटी चलती जैसे तैसे
इनकी उनकी मजदूरी से
भी मिल जाते थोड़े पैसे
दालें इतनी गराँ हो गयीं
स्वप्न भकोसा, बड़ा, रिकौछें
रामभरोसे, बैठे सोचें।
कच्चा ताल है पड़ा अधूरा
पड़ी अधूरी नाली सड़कें
पुलिया बरखा झेल न पायी
लाठी के बल नाला तडकें
मनरेगा से रकम मिले जब
पहिले ऊपर वाले गोचें।
रामभरोसे, बैठे सोचें।
जनता के हैं प्रतिनिधि, लेकिन
पाँच वर्ष तक बहुर न पायें
नित्य नयी ढपली बदलें
पर राग पुराने ही दोहरायें
टीवी के परदे तक सीमित
नेताओं की लड़ती चोचें
रामभरोसे, बैठे सोचें।- अनिल कुमार वर्मा
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इस पखवारे
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
दोहों में-
पुनर्पाठ में-
पिछले पखवारे
१४ जनवरी
२०१६ को प्रकाशित
नव वर्ष के उत्सव से रचा-बसा
३८ गीतों, अनेक दोहों, कुंडलियों,
५ गजलों और ५ छंदमुक्त
रचनाओं के साथ
मन को रिझाने वाला
नव वर्ष विशेषांक
जो साल भर
मन को तरोताजा रखेगा।
और
नवजीवन का सुंदर मार्ग
दिखाएगा
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