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१६. १२. २०१३

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जैसे कभी पिता चलते थे

            

  जैसे कभी पिता चलते थे
वैसे ही अब मैं चलता हूँ!

भरी सड़क पर बाएँ-बाएँ
बचता-बचता डरा-डरा-सा
पौन सदी कंधों पर लादे
भीतर-बाहर
मरा-मरा सा
जलकर सारी रात थका जो
अब उस दीये-सा जलता हूँ!

प्रभु की कृपा नहीं कम है ये
पौत्रों को टकसाल हुआ हूँ
कुछ प्यारे भावुक मित्रों के
माथे लगा
गुलाल हुआ हूँ
मिलन-यामिनी इस पीढ़ी को सौंप
स्वयं बस वत्सलता हूँ!

कभी दुआ-सा, कभी दवा-सा
कभी हवा-सा समय बिताया
संत-असंत रहे सब अपने
केवल पैसा
रहा पराया
घुने हुए सपनों के दाने
गरम आँसुओं में तलता हूँ!

-भारत भूषण

इस सप्ताह

गीतों में-

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भारत भूषण

अंजुमन में-

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संजू शब्दिता

छंदमुक्त में-

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दिनकर कुमार

हाइकु में-

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अश्विनी कुमार विष्णु

पुनर्पाठ में-

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अनिल वर्मा और रजा किरमानी

पिछले सप्ताह
९ दिसंबर २०१३ के अंक में

गीतों में-

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मधु प्रधान

अंजुमन में-

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मुन्नी शर्मा

छंदमुक्त में-

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निर्मल गुप्त

मुक्तक में-

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लाखनसिंह भदौरिया सौमित्र

पुनर्पाठ में-

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शैलाभ शुभिशाम

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   

 

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