जाड़े की है
धूप उदासी
कुछ गुमसुम कुछ पीली पीली
जैसे रेत समेटे मुट्ठी
बँधी हुई हो
ढीली ढीली
फुरसत के
पल की कुछ यादें
दिखलाती हैं दृश्य पुराने
जब आते थे हँस लेने के
मन तो ढेरों ढेर बहाने
प्रेम डोर से बँधी हुई थी
वह पोथी कुछ
सीली सीली
यूँ तो शीत
जकड़ कर बैठी
कंबल चादर मोटे स्वेटर
गूँज रहे हैं कानों में
गरमाहट के रीते आखर
फिर भी तनमन सुलग रही है
पोर पोर पर
तीली तीली
जल्दी
उगते जल्दी ढलते
दिन के जैसा साथ हमारा
मन को अब तक साल रहा है
इक अनुभव कुछ खारा-खारा
अपने दुखड़ा बाँच रही हैं
मेरी आँखें
गीली गीली
-शरद सिंह |