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२०. ९. २०१०

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बरसो राम धड़ाके से

 

बरसो राम धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

लोकतंत्र की
जमीं पर, लोभतंत्र के पैर
अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?
अपनेपन की आड़ ले, भुना
रहे हैं बैर
देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर
मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

कर विनाश
मिल, कह रहे, बेहद हुआ विकास
तम की कर आराधना- उल्लू कहें उजास
भाँग कुएँ में घोलकर, बुझा
रहे हैं प्यास
दाल दल रहे आम की- छाती पर कुछ खास
पिंड छुड़ाओ डाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

मगरमच्छ
अफसर मुए, व्यापारी घड़ियाल
नेता गर्दभ रेंकते- ओढ़ शेर की खाल
देखो लंगड़े नाचते, लूले
देते ताल
बहरे शीश हिला रहे- गूँगे करें सवाल
चोरी होती नाके से, बरसो राम
धड़ाके से !
मरे न दुनिया फाके से !

-आचार्य संजीव सलिल

इस सप्ताह

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संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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