साँझ को तन पर लपेटे
शोर साँसों में समेटे
काँस वन में मैं दिवस का
अकेलापन हूँ
एक गाथा का समापन हूँ!छुओगे तो
आइने-सा
झनझना कर टूट जाऊँगा
सेंदुरी मंगल कलश-सा
धार में ही फूट जाऊँगा
मैं हवाओं की त्वचा का
खुरदुरापन हूँ!
धूप बुनकर
अग्नि गाछों पर-
दहकता
दिशाओं में
तप्त चंदन-सा महकता
नाग-पाशों से बिंधा
घायल हरापन हूँ!
मंत्र जल-सा
आंजुरी में
मत मुझे बाँधों
हो सके तो
बाँसुरी में दर्द-सा साधो
छंद की आवृत्तियों में
मैं नयापन हूँ!
- देवेन्द्र शर्मा इंद्र |