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अभिव्यक्ति  १४. ७. २००

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बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना
रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना

कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना
फिर आकर बाँहों में खो जाना
अकस्मात मंडप के गीतों की लहरी
फिर गहरा सन्नाटा हो जाना
दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना,
कँपना, बेबस हो गिर जाना

रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन को कोना-कोना
बरसों के बाद उसी सूने-से आंगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना!

--धर्मवीर भारती

इस सप्ताह

गौरवग्राम में-
धर्मवीर भारती

तेवरियों में-
ऋषभदेव शर्मा

छंदमुक्त में-
अरुणा राय

काव्य संगम में-
अलेक्सांदर पूश्किन की रूसी कविताएँ

हाइकु में-
रामकृष्ण विकलेश

पिछले सप्ताह
जुलाई २००८ के अंक में

पुनर्पाठ में- भगवतीचरण वर्मा

अंजुमन में- हरबंस सिंह अक्स

नई हवा में- रुचि राजपुरोहित 'तितिक्षा`

छंदमुक्त में-
अनामिका

दोहों में-
डॉ. राधेश्याम शुक्ल

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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