काग़ज़ के सब फूल हैं, वृंत-वृंत निस्पंद,
मसलो कितना ही इन्हें, देंगे नहीं सुगंध।
उलझी-पुलझी टहनियाँ, पात-पात पर धूल,
हम पर बरसे थे कभी, इसी पेड़ से फूल।
जंगल में कंक्रीट के, कैसे पनपे दूब,
फूल-फलेंगे कैक्टस, ख़ार चुभेंगे ख़ूब।
बढ़ा प्रदूषण हर तरफ़, शोर-शराबा, धूल,
ऐसे में क्योंकर खिलें, कोमल-कोमल फूल।
मन की दौलत जब लुटी, सूख गया संसार,
सींच न इसको फिर सका, दौलत का अंबार।
दौलत से दौलत बढ़ी, और बढ़ा व्यापार,
दौलत से ना मिल सका, प्रियतम तेरा प्यार।
फूलों में ख़ुशबू नहीं, नहीं तने पर खार,
फिर भी हमने बदन पर, पाए ज़ख़्म हज़ार।
ऐसा है इस शहर का, रंग-रंगीला रूप,
ना चंदा की चाँदनी, ना सूरज की धूप।
देख कमाई शहर की, खोया अपना गाँव,
छत-आँगन दुर्लभ हुए, दूर दरख़्त की छाँव।
कहाँ गई वो आदतें, कहाँ गए संस्कार
चेहरे पर मुस्कान है, अंदर हाहाकार।
सीताराम गुप्ता
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