अभिलाषा
ज़िंदगी-
मैं तेरे संग ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मिट्टी संग पौधा
पत्ते संग हरियाली
और आँखों संग दृश्य।
ज़िंदगी-
मैं तेरे साथ इस प्रकार का
भावुक मोह चाहता हूँ
जैसे सागर संग मछली
सूरज संग गरमाहट
फूल संग खुशबू।
ज़िंदगी-
मैं ढलानों को, शिखरों को
यों करना चाहता हूँ पार
जैसे सागर की लहरों को किश्ती
ऊँची-ऊँची पहाड़ियों को
कोई पहाड़ी गडरिया।
ज़िंदगी-
मैं चाहता हूँ रात-दिन
कि तपते मरुस्थल पर
छा जाऊँ बादल बन कर
गरमाहट भरे पंख बन जाऊँ
ठिठुरते–सिकुड़ते बोटों के लिए।
ज़िंदगी-
मैं इस तरह विशाल होना चाहता हूँ
जैसे सात समुंदरों का एक रूप
सतरंगी किरनों की एक धूप
अनेक टहनियों–पत्तों वाला
हरा–भरा एक पेड़।
ज़िंदगी-
मैं तेरे संग ऐसे जीना चाहता हूँ
जैसे मिट्टी संग पौधा,
पत्ते संग हरियाली
और आँखों संग दृश्य!
उसने कहा
उसने कहा
मैं चिरकाल से
तुम्हारे पीछे चला आ रहा हूँ
अब तुम, मेरे पीछे चलो।
उन्होंने कहा
हमारे पास मुँह है
और तेरे पास पैर
पैरों का धर्म चलना होता है।
उसने कहा
मैंने बहुत देर तक
'हाँ' में 'हाँ' मिलाई है
अब मेरे बोल सुनो।
उन्होंने कहा
ज़बान हमारे पास है
और कान तुम्हारे पास
कानों का धर्म सुनना होता है।
उसने कहा
तुमने मुझे बेघर किया है
मेरा घर मुझे वापस दो।
उन्होंने कहा
आदिवासियों का घर जंगल है
हम जंगल की हवा फैलाएँगे
हवा के खिलाफ़ जाना पाप है।
उसने कहा
मैं हूँ–आँखों पर पट्टी बँधा बैल
थके–हारे को अब करने दो आराम
और खोलो मेरी आँखें।
उन्होंने कहा
तुम्हारा धर्म देखना नहीं
देख कर अनदेखा करना है।
उसने कहा
मैं हवा के खिलाफ़ चलूँगा
तुम्हारे शब्द बनेंगे
मात्र गुंबद की आवाज़।
उन्होंने कहा
हवा को थामना
आवाज़ को रोकना
अब बिलकुल असंभव है, असंभव है।
कविता की तलाश
कविता को आजकल
मैं यों तलाशता हूँ
जैसे रेगिस्तान में मनुष्य
तलाशता है कोई दरख़्त।
हमारे समय में
कविता कितनी हो गई है संवेदनहीन
सचमुच ही दिशाहीन
सामाजिक सरोकारों से विलग
भूल भुला गई है
अपनी गौरवमयी विरासत
तख़्त से जूझती
तख़्ते पर झूल गई भावना
दर्दमंदों के लिए कामना।
यह कैसा समय है समकालीनों!
कविता ने सीख लिया है
नदी की तरह
किनारों के बीच बहना
किसी बैलगाड़ी की तरह
पहली लकीर पर चलना
अंधेरी सुरंग अगर है मुख्यधारा
'चेतन' शब्दों का भला क्या है करना
'अथो' के पल्ले रह गया बस कसकना।
यह कैसी 'होनी' है
माँ तेरी कविता की
म्यान में कृपाण की तरह
जंग खा गया इसके अर्थों को
कंप्यूटर–वायरस की तरह
'काम–कीट' खा गए शब्दों को
मैं फिर भी तलाशता हूँ
दुर्बल से, लाखे रंग के
दबे–कुचले आदमी के लिए कविता
मोहनजोदड़ों जैसी सभ्यता।
अंतरिक्ष यान की तरह
धरती से दूर न जा
मेरी प्यारी कविता
निरे मुहब्बत–हादसे
रख न सुरक्षित
शब्दों के वास्ते।
और तू, फिर यों लौट आ
जैसे रुंड–मुंड दरख़्तों पर
हरी–भरी टहनियाँ–पत्ते
घास पर ओस की बूँदें।
कविता को आजकल
मैं यों तलाशता हूँ
जैसे रेगिस्तान में मनुष्य
तलाशता है कोई दरख़्त।
काव्य–इच्छा
मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
बरसाती नालों की भाँति
किसी नदी में गिर कर
खो बैठें अपनी पहचान।
मैं नहीं चाहता
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसके धर्मग्रंथ
एक विशाल खेत को
बाँटते हैं टुकड़ों में
मखमली घास की हरियाली
आरक्षित करते हैं चोटी–टोपी के लिए
वर्जित करते हैं तीसरा नेत्र खोलना
मेरे जैसे लाखे रंग के लोगों के लिए।
मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उन परिंदों के नाम हों
जो गाँव की बस्तियों–मुहल्लों को पार कर
चुग्गा चुगने के लिए उतर आते हैं
इन–उन आँगनों में
घरों की ऊँची–नीची
छतों की परवाह किए बगैर।
बस, मैं तो चाहता हूँ
कि मेरी कविताएँ
उस काव्यधारा में शामिल हों
जिसमें एकलव्य, बंदाबहादुर की वीर गाथाएँ हैं
पीर बुद्धूशाह का जूझना है
पाब्लो नेरूदा की वेदना है।
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तिनके से हल्का आदमी
कई बार
सर कलम किए पेड़ की तरह
हो जाता हूँ बौना
जिसके ऊपर से गुज़रती है
बिजली की तार।
टांग दिया जाता हूँ
बेमौसम
जब अकस्मात ही
कोई पूछ लेता है मेरा धर्म।
कई बार
पानी से भी पतला
हो जाता है माटी का यह पुतला।
शब्द–
जुबान का छोड़ जाते हैं साथ
जैसे पतझड़ में पेड़ों से पत्ते।
सिर पर से गुज़र जाता है पानी
धरती देती नहीं जगह
जब अचानक ही
कोई पूछ लेता है मेरी जात।
कई बार
मन के आकाश पर
चढ़ आते हैं
घोर उदासियों के बादल
जब महानगरीय हवा में
पंख समेट कर बैठ जाता है
उड़ाने भरता, कल्लोल करता
चुग्गा चुगने आया कोई परिंदा
पूछे जब कोई सहसा
उसका मूल प्रदेश
पहले गाँव, फिर मुहल्ला।
कई बार क्या, अक्सर ही
बिंध जाता है उड़ता हुआ परिंदा
कभी धर्म, कभी जात, कभी मुहल्ले से
तो कभी
अवर्ण के बाण से।
वे कब चाहते हैं
वे कब चाहते हैं
कि चंदन के बूटे वृक्ष बनें
बिखेरें सुंगधियाँ
बाँटे महक दसों दिशाओं में
अभागे समय में
दूषित वातावरण में।
वे तो चाहते हैं
नीरों को बाँटना
पीरों का बाँटना।
वे चाहते हैं, लहू-लुहान गलियों में
शकुनी नारद चले
साझे चूल्हे की मढ़ी पर
एक चौमुखा दिया जले।
वे कब चाहते हैं
पेड़ों के झुरमुट हों
बढ़ें, फलें, फूलें
वे चाहते हैं
वन में वृक्ष हों अकेले-अकेले
या फिर रगड़ते रहे बाँस आपस में
और लगती रहे आग!
वे कब सहन कर पाते हैं
दूसरों के सिरों पर रंगीन छतरियाँ
ठंडे–शीत मौसमों में कोई गरमाहट
आँगनों में गूँजती, खनखनाती हँसियाँ।
वे तो चाहते हैं
पीछे लौट जाए
चढ़ा हुआ पानी
दूध में उबाल की तरह
भ्रूण में ख़याल की तरह
निगली जाएँ शिखर दोपहरियाँ
दरख्तों के साये
धरती के जाये
बेटों के पते।
वे कब चाहते हैं
त्रिशूल–तलवार को ढाल
बनाएँ हलों की फाल
निकालें कोई नई राह
वे तो चाहते हैं
भोथरी कर देना
तीखी इनकी धार!
धारा
सोचता हूँ-
अचानक आए तूफ़ान में
टूटे-गिरे पौधे को देखकर
करीब खड़े पुराने दरख़्तों पर
क्या–क्या न बीती होगी।
और याद आता है
दरख़्तों का जीवट
अपने आप ही फिर
कदमों में आ जाती है फुर्ती
मुरझाए मन का परिंदा
फिर से भरने लगता है
ऊँची उड़ाने।
मेरी ज़िंदगी
जब से वह मेरे संग है
एक और एक ग्यारह हैं
धरती पर लगते नहीं पैर
और बहुत पीछे छोड़ आया
घोर उदासियों के जंगल
नफ़रतों के खंड-मंडल
फेंक दिए हैं उसकी मुहब्बत के सामने
शिकवे-गिलों के हथियार
वैरभाव के विचार।
बो दिए हैं उसने
मेरे मन में
रोष-विद्रोह से भरे चेतन बीज
जैसे पल रहा है
उसके तन-मन के अंदर
हमारे भविष्य का वारिस।
ढक दिया है उसने
मेरे अवगुणों–ऐबों का तेंदुआ-जाल
जैसे चमड़ी ने
ढँक रखे हैं तन के नाड़ी और तंतु-जाल
पर खूब नंगा करती है वह
उन पैरों के सफ़र को
जिन्होंने फलाँगे थे गड्ढ़े-टीले
दायें-बायें, पीछे-आगे
और तैर कर पार किए थे चौड़े पाट के दरिया
निडर होकर कही थी बात
बीच लोगों के।
रक्त में रचे ख़यालों की तरह
बहुत राज़दार है वह
कभी-कभी क्या
अक्सर ही
मुझे 'कृष्ण'
और खुद को 'राधा' कहती है
मुझे 'शिव'
अपने को 'पार्वती' बताती है
आर्य–अनार्य के बीच
पुल बनती लगती है
और वजह से
उसने बहुत कुछ समो लिया है
अपने अंदर
जैसे धरती के विषैले रसायन
जब देखने जाते हैं
किराये का मकान
धार्मिक स्थानों पर होता अपमान
सवालिया नज़रों से वह
तलाशती है मनुष्य का ईमान
और फिर धूप की तरह
और ज़्यादा चमकती है
हमारे अंशों का मेल
हमारे वंशों का सुमेल
अंबर को धरती पर लाएगा
जनता के लिए पलकें बिछाएगा।
मैं फटी आँखों से
उसकी ओर निहारता हूँ
और अतीत में से
वर्तमान और भविष्य को देखता हूँ।
9 अक्तूबर 2007
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