मेह क्या बरसा
मेह क्या बरसा घरों को लौट आए
नेह वाले दिन
हाट से लौटे कमेरे मुश्किलों से मन बचा कर
लौट आए छंद में कवि शब्द की भेड़ें चरा कर
मेह क्या बरसा भले लगने लगे हैं
स्याह काले दिन
कोप घर से लौट धरती ने हरी मेहँदी रचाई
वीतरागी पंछियों ने गीतरागी धुन बनाई
मेह क्या बरसा लगे मुरली बजाने
गोप ग्वाले दिन
कुरकुरे रिश्ते बने कड़वे कसैले पान थूके
उमंगें छत पर चढ़ीं मैदान में निकले बिजूके
मेह क्या बरसा सभी ने हाथ में लेकर
उछाले दिन
-महेश अनघ
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