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एक दिन आप
एक दिन आप ऐसा करते हैं
चश्मा पहन लेते हैं
और आँखों को रख देते हैं
चश्मे के घर में
जूतों को पहनने के बाद
ख़याल आता है
कि अरे,
पैरों को तो भूल आए रास्ते में
एक छींक होते-होते रह जाती है
राहत मिलते-मिलते ठिठक जाती है
नाक के बारे में याद आता है
कि वह तो रह गई
घर पर टँगी पतलून की
जेब के रूमाल में
कुछ कहना चाहते हैं
किसी के कान में निहायत गोपनीय
और आवाज़ का ढूँढे पता नहीं चलता
और ग़ौर से देखते हैं
फ़ोन के रिसीवर में
आप मौजूद हैं किसी महफ़िल में
हाथ मिलाते, गपियाते, हँसते-मुसकुराते
अचानक आपको आता है ख़याल
बाथरूम में जिसे पीछे छोड़ आए आप
उसकी शक्ल कितनी मिलती थी आपसे।
–आशुतोष दुबे |