कहाँ जाऊँ मैं?
तुम यही समझते हो ना कि, तुम्हारे पलायन पर मैं
बहुत खुश हुआ था। कि, मैं इसी ताक़ में था कि तुम्हारे हिस्से की थाली
हड़पकर मालामाल हो जाऊँ। कि, तुम्हारी विरासत का एकमात्र मालिक बन
तुम्हारी ज़मीन को मुट्ठी में क़ैद कर लूँ। कि, श्मशानों में सपनों के महल बनाकर
तुम्हारी हर याद, हर निशान को मिटा दूँ और छोड़ दूँ अपनी छाप तुम्हारी हर चीज़
पर। लेकिन शायद तुम्हें यह नहीं मालूम कि मैंने श्मशानों पर सपनों के महलों
का निर्माण तो किया लेकिन उस निर्माण में मेरे अपने ही स्वप्न खो गए।
तुम्हारे निशान मिटाने की कोशिश में मेरी अपनी ही पहचान मिट गई मेरे भाई! ठीक
वैसे ही जैसे रेत पर कदमों के निशान मिट जातें हैं। तुम समझते हो तुम्हारे
अस्तित्व को मैं लील गया पर, उस प्रयास में मेरा अस्तित्व कहाँ गया
यह शायद तुम्हें मालूम नहीं। मैंने कल ही एक नई मुहर बनवाई और लगा दी
ठोंककर हर उस चीज़ पर जो तुम्हारी थी। लेकिन यह ख़याल ही न रहा कि उन
कब्रिस्तानों का क्या करूँ जो फैलते जा रहे हैं रोज़-ब-रोज़ और कम पड़ रहे
हैं
हर तरफ़ बिख़री लाशों को समेटने में! बस, अब तो एक ही चिंता सता रही है हर पल
तुम को चिता की आग नसीब तो होगी कहीं-न-कहीं पर, मेरी कब्र का क्या होगा मेरे
भाई?
1 अप्रैल 2007
सुराख़दार थाली
हम दोनों एक ही थाली में खाते थे दही-भात
बावजूद इसके तुम्हारा अपना अस्तित्व था और मेरा अपना। अचानक यह क्या हो गया?
थाली टूट गई और बिख़र गया दही-भात। तुमने बसा लिया अपना एक अलग नगर
मैंने भी अपना अलग गाँव लिया। दोनों ने ख़रीद ली
अलग-अलग थालियाँ और दही-भात का बँटवारा हो गया। मगर हाय अफ़सोस! हमें
मालूम ही न था कि कि हम सुराख़दार थाली में खाते रहे थे और उसके नीच रिसते
दूधिया पानी पर पल रहा था चुपचाप एक संपोला जो धीरे-धीरे बन गया एक अजगर
और डस गया तुम्हें भी और मुझे भी।
1 अप्रैल 2007
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शब्द सहायता-
1-कश्मीर की आदि कवयित्री ललद्यद,
2-प्रसिद्ध कवयित्री अरणिमाल,
3-कवयित्री हब्बाख़ातून, ज़ूनि जन्म-नाम 4-इस्लाम-दुश्मनी के लिए कुख्यात,
5-प्रथम ख़लीफ़ा,
6-राजतरंगिणी के रचियता,
7-कश्मीर के प्रसिद्ध फ़ारसी कवि,
8-14-कश्मीर के प्रसिद्ध कवि/लेखक,
15-16-पक्षी विशेष,
17-कश्मीर की प्रसिद्ध झील,
18-झेलम नदी
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मैं लिखूँगा नहीं
मैं आज कुछ भी नहीं लिखूँगा- कुछ भी नहीं! लिखूँ
क्या? सोचूँ क्या? कुछ भी न लिखूँगा,कुछ भी न सोचूँगा। क्या मैं यह लिखूँ कि
खून की नदियाँ बह रही हैं मेरी वादी/कश्मीर में? मौत के नज़ारे- सूनी
गोदें और ख़ौफ़नाक वीराने रोते गुल और उजड़ते बगीचे! ज़िंदगी सिमट रही, जम
रही मौत बेख़ौफ़ है नाच रही, विस्तार लेते ये कब्रिस्तान नए आयाम लेते ये
उजाड़, इधर, भेड़िए मांस खा रहे और उधर,गीध हैं मंडरा रहे। खून की धार उधर
कहीं, आग की लपट इधर कहीं। भाग रहे उधर कुछ क्योंकर? नष्ट हो रहे इधर कुछ
क्योंकर? कालरात्रि का कुहासा हर तरफ़ दिन में ही हैं लोग सोए हुए। यह कौन
पत्थर के नीचे दबी पड़ी? ध्यान से देख तू ज़रा, यह कोई 'लल'1 तो नहीं? बेबस
मानवी, यह तेरी माँ या फिर मेरी बेटी। 'अरणि'2 लिख रही प्रगीत किस को?
'जूनि'3 भेज रही विरह-संदेश किस को? वह माँ क्यों है दहाड़ रही? यह बाप किस
लिए है सिसक रहा? वह पगली क्योंकर कलप रही? वह अबला क्यों है रो रही? सुन,
अनाथ-हुओं की पुकार से दरअसल, ज़मीन-आसमान हैं थर्रा रहे। मौत का सन्नाटा
व्याप रहा चारों ओर हत्यारी शक्लें घूम रहीं मनप्राण जघन्यता से हैं उनके
भरपूर। होंठ खून के प्यासे तो जुनून से ग्रस्त इनकी नज़र, मंदिर रक्त से हैं
लिपे, तो मस्जिदें खून से हैं पुती हुईं। उधर, हाथ में कटार लिए नत्थू
इधर, तुग़लक के हाथ में है खंजर, उधर, फाँसी पर मसीहा झूल रहा इधर, सुकरात है
ज़हर पी रहा। उधर, एक 'अबूजहल'4 तो इधर,है एक 'अबूबकर'5। लेखनी ख़ामोश,
जीभ जैसे कट गई है- पुस्तक ने अपने पृष्ठ हैं समेट लिए, शब्द जैसे गुम हो गए
हैं। है कोई जो इन को उबारे? सुना है समाधिस्थ है 'कल्हण'6 कहीं 'गऩी'7
भी कहीं छिप गया है। 'नादिम'8 निगल गया है शब्द और अक्षर सारे, 'लोन'9 अब
चिरमौन, उसे भला क्या ख़बर? 'राही' 10 ने जोड़ दिए हैं अपने किवाड़ और
खिड़कियाँ सारी की सारी, 'नाज़की'11 नेभी समेटली है अपनी गठरी। 'कामिल'12
बैठा कहीं छिपकर है, 'साक़ी' 13 शायद भूल गया रास्ता
अपने वतन का है। गला बैठ गया 'ऐमा' 14 का, सुन भाई- आज न वह नआत ही लिखता
न भजन ही गाता कोई! न कोई 'कुमरी' 15 आज चहक रही न कोई 'कतजी' 16 ही आज नाच
रही, कोकिल जैसे आज कहीं खो गई डर रहा हुदहुद आज बोलने से। जब से वह माली
चल बसा है भौंरा भी जड़/मूक हो गया है। न कोई गुलाब ही अब खिले न कोई शबाब
ही अब दिखे, मातमी रंग आकाश में है छाया हुआ सूरज भी अहर्निश है रो रहा।
खिड़की आज भी खुली है मेरी, मगर कोई बुलबुल आकर चहक नहीं रही। न कुछ सूझ रहा
इन आँखों को न लेखने से ही कुछ निकस रहा, ये गोड़े थक गए हैं वसंत में ही
है चारों ओर पतझड़ छाया हुआ 'डल'17 ख़ामोश है साँस रोके अपनी, 'वितस्ता'18 ने
मुखड़ा अपना है छिपा लिया। मुझे रोना मत मेरे भाई! कश्मीर पर निधड़क रोना है
मुझे, रोऊँगा मैं धाड़ें मार-मार कर रोऊँगा मैं दिन-रात एक कर। यह हो क्या
गया मेरे कश्मीर को?बोल ज़रा! नज़र किसकी खा गई? बोल ज़रा! मैं आज कुछ भी
नहीं लिखूँगा- कुछ भी नहीं! लिखूँ क्या? सोचूँ क्या? कुछ भी न लिखूँगा,
कुछ भी न सोचूँगा।
1 अप्रैल 2007
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