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१
नहीं उड़े मेरे साथ-
वे हज़ारों पक्षी
जो मेरे भीतर
उड़ाने भरते रहेफूट कर बाहर
नहीं निकले-
वे असंख्य झरने
जो मेरे भीतर
दबे स्वरों में
रोते रहे
वे बंदी पक्षी-
जो फड़फड़ाते रहे
वे अवरुद्ध झरने-
जो कुलबुलाते रहे
कहीं वही तो नहीं थे
स्पंदन जीवन के!
—प्रवीण चंद्र शर्मा |
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